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प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक
पहला अवान्तर अधिकार द्रव्य का निरूपण-(अभेद दृष्टि से-८ से ७० तक) द्रव्य का लक्षण ( अभेद दृष्टि-निश्चयदृष्टि से)८ से १४ तक तत्त्वं सल्लाक्षणिक सन्मानं वा यतः स्वतः सिद्ध ।
तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं. निर्विकल्प च ॥८॥ अर्थ-तत्व (द्रव्य ) सत् लक्षण वाला है (गुण-गुणी अभेद दृष्टि) अथवा सत् मात्र है ( सत् ही तत्व है-अभेद दृष्टि)। क्योंकि स्वतःसिद्ध है इसलिये अनादि अनिधन, स्वसहाय और निर्विकल्प ( भेद रहित-अखण्ड) है (यह छहों द्रव्य में प्रत्येक द्रव्य का सामान्य लक्षण है, वस्तु मात्र का लक्षण है)।
व्याख्या-(१) द्रव्य को तत्त्व, सत्त्व, सत्ता, सत्, अन्वय, वस्तु, अर्थ, पदार्थ, सामान्य, धर्मी, देश, समवाय समुदाय इत्यादि अनेक नामों से पुकारते हैं। सो ग्रन्थकार कहीं किसी शब्द का, कहीं किसी शब्द का प्रयोग करेंगे।
(२) सामान्यविशेषात्मक वस्तु को भेद की दृष्टि से देखना-कथन करना-विशेष कथन अर्थात् धर्मों का कथन है और उसी को अभेद-अखण्ड, सत् की अपेक्षा निरूपण करना थर्मी का कथन है - ऐसा यहाँ आशय है। यहाँ मात्र सामान्य अंश नहीं है किन्त सामान्यविशेषात्मक अभेद सामान्य है जो अनभय नय, निश्चय नय अथवा शद्ध द्रव्यार्थिक नय से कहा जाता है। इसी नय से यह लक्षण किया है। प्रमाण दृष्टि का लक्षण यह नहीं है।
(३) निर्विकल्प शब्द का अर्थ राग रहित नहीं है किन्तु भेदरहित अखण्ड है, क्योंकि छः द्रव्यों का सामान्य कथन है। यहाँ सामान्य वस्तु का लक्षण है, आत्मा की बात नहीं है।
(४) स्वतःसिद्ध शब्द से यह प्रयोजन है कि वस्तु किसी ईश्वर आदि से उत्पन्न नहीं है। स्वतः स्वभाव से स्वयं सिद्ध है।
(५) अनादि निधन शब्द से यह अभिप्राय है कि वस्तु क्षणिक नहीं है। सत् की उत्पत्ति नहीं है और न सत् का नाश है। वह अनादि से है और अनन्त काल तक रहेगा।
(६) स्वसहाय का यह भाव है कि पदार्थ-पदार्थान्तर के सम्बंध से पदार्थ नहीं है या निमित्त या अन्य पदार्थ से नहीं टिकता है किन्तु वह प्रभु खुद मुखतार (Independent) है। अनादि अनन्त अपने स्वभाव या विभाव रूप से स्वयं अपनी योग्यता से परिणमन करता है। कभी किसी पदार्थ का अंश न स्वयं अपने में लेता है और न अपना कोई अंश दूसरे को देता है। अनादि अनिधन में उसे उत्पत्ति नाश से रहित बताना है और स्वसहाय में उसकी स्वतन्त्र स्थितिटिकाव तथा स्वतंत्र परिणमन बताना है। __यह गाथा इस प्रथम भाग का 'करणसूत्र' है। सारा ग्रन्थ अर्थात् ७६८ श्लोक इसी वस्तु को अनेक पद्धतियों से समझाने का प्रयत्ल किया है। यह सूत्र कण्ठस्थ करने योग्य है। वस्तु लक्षण या वस्तु विचार के लिये अत्यन्त लाभदायक है।
अगली भूमिका वस्तु का जो स्वरूप यहां अस्ति रूप से-अन्वय रूप से कहा है, उसी की नास्ति रूप से-व्यतिरेक रूप से अगले श्लोक ९ से १४ तक चर्चा की है। अस्ति नास्ति से वस्तु के स्वरूप को ठीक सिद्धि हो जाती है और खोटी मान्यताओं का स्वतः खण्डन हो जाता है या यूं भी कह सकते हैं कि इस श्लोक में जैन सिद्धांत पद्धति अनुसार कथन किया है
और उसी वस्तु का अगले ६ श्लोकों में अन्य मान्यताओं की मुख्यता को लेकर उनका न्याय पद्धति अनुसार खण्डन किया है। अभेद दृष्टि से , निश्चय दृष्टि से द्रव्य का लक्षण यहां किया है। ७०वें श्लोक तक इसकी सिद्धि करके फिर इसी द्रव्य को ७१ से भेद दृष्टि व्यवहार दृष्टि से निरूपण करेंगे।