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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
प्रमाण - मङ्गलाचरण में ग्रन्थकार ने श्री प्रवचनसार के मूलकर्त्ता तथा टीकाकार का अनुकरण किया है।
प्रतिज्ञा
इति वन्दितपंचगुरुः कृतमङ्गलसत्क्रियः स एष पुनः ।
नाम्ना पञ्चाध्यायीं प्रतिजानीते चिकीर्षितं शास्त्रम् ॥ ४ ॥
अर्थ - इस प्रकार पांचों परमेष्ठियों का वन्दना रूप मंगलाचरण सत्कर्म करके ग्रन्थकार अब पञ्चाध्यायी नामक इच्छित शास्त्र को बनाने की प्रतिज्ञा करता है।
ग्रन्थ बनाने में कारण ५-६
अत्रान्तरङ्ग हेतुर्यद्यपि भावः कवेर्विशुद्धतरः ।
हेतोस्तथापि हेतुः साध्वी सर्वोपकारिणी बुद्धि ॥ ५ ॥
अर्थ - यद्यपि इस ग्रन्थ के बनाने में अन्तरंग कारण कवि का विशुद्धतर परिणाम है तो भी कारण का कारण सबका उपकार करने वाली श्रेष्ठ बुद्धि (अर्थात् ज्ञान का विशिष्ट क्षयोपशम ) है।
भावार्थ-चरित्र गुण में कषायों की मन्दता और ग्रन्थ बनाने का विकल्प कवि का विशुद्धतर परिणाम है जो ग्रन्थ बनाने का प्रथम कारण है और उसका भी कारण कवि का विशिष्ट ज्ञान क्षयोपशम है। जिस ( क्षयोपशम ) के कारण लिखित ग्रन्थ द्वारा सब जीवों का भला हो सकता है। यदि ग्रन्थ बनाने का भाव हो और विशेष क्षयोपशम न हो तो भी कार्य नहीं हो सकता। यदि क्षयोपशम हो और ग्रन्थ बनाने का भाव न हो तो भी कार्य नहीं हो सकता। अतः दोनों कारणों का निर्देश किया है।
सर्वोऽपि जीवलोकः श्रोतुंकामो वृषं हि सुगमोक्त्या ।
विज्ञप्तौ 'तस्य कृते तत्रायमुपक्रमः श्रेयान् ॥ ६ ॥
अर्थ -- सब ही जीव लोक धर्म को सरल (किन्तु कमबद्ध ) कथन शैली से ही सुनने का इच्छुक है। यह बात सर्व विदित है | अतः उस (जीवलोक ) के लिए उस ( धर्म श्रवण ) में यह क्रम (कथनशैली) श्रेष्ठ (लाभदायक ) होगा। विषय सूचना
सति धर्मिणि धर्माणां मीमांसा स्यादनन्यथान्यायात् । ततः परं चापि ॥ ७ ॥
साध्यं वस्तुविशिष्टं धर्मविशिष्ट
अर्थ-धर्मी (सामान्य वस्तु सत् ) के होने पर ही धर्मों का ( सत् की विशेषताओं का ) विचार होता है। यही न्याय से ठीक है। इसलिये पहले सामान्यवस्तु ( अभेद वस्तु सत् सामान्य ) सिद्ध करने योग्य है और उसके पश्चात् धर्मविशिष्ट वस्तु (विशेष वस्तु भेदात्मक वस्तु-जीवाजीवादि वस्तु) भी सिद्ध करने योग्य है (पहले सामान्य सत् को कहकर फिर उस सत् में क्या-क्या विशेषतायें हैं उनको सिद्ध करेंगे जैसे कोई सत् चेतन है तो कोई अचेतन है। कोई मूर्तिक है तो कोई अमूर्तिक है। कोई भाववती शक्ति युक्त है तो कोई भाववती, क्रियावती दोनों युक्त है। कोई वैभाविक शक्ति युक्त है तो कोई नहीं है ।
भावार्थ- वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। सो पहले अध्याय में सामान्य वस्तु अर्थात् द्रव्य मात्र का निरूपण करेंगे और दूसरे अध्याय में विशेष वस्तु, द्रव्य विशेष, सत् विशेष, जीवाजीवादि का निरूपण किया जायेगा क्योंकि जो सत् सामान्य है वही तो सत् विशेष है और दोनों धर्मों का ज्ञान होने पर ही पूर्ण वस्तु का ज्ञान होता है। न्याय की यह पद्धति है कि पहले सत् सामान्य का ज्ञान किया जाये फिर सत् विशेष का अन्यथा वस्तु का ठीक-ठीक भान नहीं हो सकता। जो सत् सामान्य है वही तो जीव रूप सत् विशेष है या पुद्गल रूप सत् विशेष है।
प्रमाण - श्री पञ्चास्तिकाय की प्रथम २६ गाथा सामान्य वस्तु की है फिर विशेष वस्तु की है। उसी प्रकार श्री प्रवचनसार दूसरे अध्याय में प्रारंभ की गाथा ९३ से १२६ तक सामान्य वस्तु का निरूपण है फिर विशेष का ठीक उसी क्रम को ग्रन्थकार ने यहां स्वीकार किया है और उसी में से यह सब विषय लिया है।
भूमिका समाप्त