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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक ___ अध्यात्मचन्द्रिका टीका सहित १. वस्तु निरूपण (श्लोक २६० तक)
मङ्गलाचरण (देव) पश्चाध्यायातयः मम कर्तुथराजमात्मवशात् ।
अर्थालोकनिटानं यस्य वचस्तं स्तुने महावीरम् ॥१॥ अर्थ-पांच अध्याय जिसके अवयव हैं (अर्थात् जो पांच अध्यायों में बंटा हुआ है) ऐसे ग्रन्थराज को अपना क्षयोपशम शक्ति अनुसार बनाने वाले मुझे, जिसके वचन पदार्थों के प्रतिभास होने में कारण हुए, उस श्री महावीर भगवान् को मैं स्तवन करता हूँ।
भावार्थ-जिस प्रकार चक्षष्मान भी व्यक्ति प्रकाश के धिना पदार्थों को नहीं देख सकता है, उसी प्रकार यद्यपि सब जीवादिक पदार्थ अनादिनिधन स्वतःसिद्ध हैं तथापि उनका यथार्थ स्वरूप मोहांधकार से अंधे हुये अज्ञ पुरुषों को जिनोपदेश के बिना समझ में नहीं आ सकता। इसलिये ग्रन्थकार का कहना है कि मुझे वस्तु स्वरूप के परिज्ञान होने में भगवान श्री महावीर स्वामी के दिव्य-बचन ही साक्षात् कारण हुये हैं। इसलिये मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। इससे ग्रन्थकार ने देशनालब्धि का संकेत भी कर दिया है क्योंकि ज्ञानी गुरु के उपदेश बिना पदार्थों का यथार्थ भान नहीं होता।निमित्त की ओर से उपकाररूप ऐसे शब्द बोलने की पद्धति है, वास्तव में वस्तुस्वरूप तो ऐसा है कि जिस समय इस जीव में यथार्थ बोध प्राप्ति की योग्यता होती है, उस समय सामने यथार्थ ज्ञानी गुरु का उपदेश अपने कारण से स्वतः वस्तु स्वभाव नियमानुसार होता ही है ( अज्ञानी को अज्ञानी ही गुरु मानते हैं)।
यह ग्रन्थ सामान्य ग्रन्थ नहीं है किन्तु द्रव्यानुयोग शास्त्रों का एक प्रकार से राजा है, यह ग्रन्थकार ने 'ग्रन्थराज' इस पद से स्वयं सूचित किया है।
__ मङ्गलाचरण ( देव गुरु) शेषानपि तीर्थकराननन्तसिद्धानहं नमामि समं ।
धर्माचार्याध्ययापकसाधुविशिष्टान्मुनीश्वरान् वन्दे ॥२॥ अर्थ-साथ ही साथ २३ तीर्थंकरों को और अनन्त सिद्धों को भी मैं नमस्कार करता हूँ तथा धर्माचार्य, धर्माध्यापक (धर्मोपाध्याय) धर्म साधु, इन तीन प्रकार के मुनीश्वरों को भी मैं नमस्कार करता हूँ।
मङ्गलाचरण (शास्त्र) जीयाज्जैनं शासनमनादिनिधनं सुवन्टामनवद्यम् ।
यदपि च कुमतारातीनदयं धूमध्वजोपमं दहति ॥३॥ अर्थ-अनादिनिधन, भले प्रकार बन्दनीय, निर्दोष, जैन आगम जीवित रहे कि जो खोटी बुद्धिवाले शत्रुओं को ( अन्य मत्तियों को ) अग्नि की तरह निर्दयता पूर्वक जलाता है ( अर्थात् उनके माने हुये खोटे तत्व का बुरी तरह खण्डन करता है)।
भावार्थ-जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उपदिष्ट आगम परम्परा दृष्टि से आदि और अन्त रहित है। सर्वज्ञ वीतराग देव द्वारा प्रतिपादित होने से - पूर्वापर विरोध न आने से प्रत्यक्ष-परोक्ष आदि प्रमाणों से खण्डित न होने से और शंकादि दोषों का स्थान न होने से निर्दोष है,तत्त्व के प्रतिपादन पूर्वक शुद्ध आत्म तत्व की प्राप्ति का उपाय बतलाने के कारण सब जीवों द्वारा-विशेषतया ज्ञानियों द्वारा भले प्रकार वन्दनीय हैं और विपरीत वस्तु स्वरूप का,खोटे मार्ग का खण्डन करने वाला है।