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है। जैसे चेतना शब्द के पर्यायवाची शब्द देकर उनके अर्थों को स्पष्ट करना अपने आप में टीकाकार की विद्वता की छाप स्पष्ट झलकती है।
टीकाकार ने कई विषयों पर अपने मन्तव्य दिये हैं जो अनुभव एवं आगम के आधार पर दिये हैं परन्तु विचारणीय हैं जैसे अष्ट मूलगुणों की विवेचना में टीकाकार लिखते हैं कि - "व्यवहार गृहस्थ धर्म के पालने में भी बहुत विवेक की आवश्यकता है। आगम पद्धति कुछ और है और समाज का ढर्रा कुछ और है। समाज रूढ़ि बहुत गलत है। इस विषय में श्रीरत्नकरण्ड जैसे श्रावकाचार का भी व्यवहार ज्ञान लोगों को नहीं है और जैसे-तैसे देखा-देखी विचरते हैं। इस पर भी कुछ प्रकाश डालना हम अपना कर्तव्य समझते हैं। वह इस प्रकार - सर्वपद्धति तो यह है कि पहले तीन मकार और ५ पापों को मोटे रूप में त्याग किया जाये (सप्त व्यसन और उदम्बर फल का त्याग इसी पाप त्याग के पेट में आ जाता है) देखिये श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार सूत्र न.६६। ये गृहस्थों का मूलधर्म है। इसके बिना श्रावक नहीं होता। रात्रि भोजन त्याग, शुद्ध भोजन ग्रहण, भोगोपभोग का कम करना इत्यादिक सब इसके बाद हैं।
जैसाकि क्रम श्रीरत्नकरण्ड श्रावकाचार में दिया है। लोग सात व्यसन तो सेते रहते हैं और रात्रि भोजन का त्याग कर देते हैं, परस्त्रीगमन तो करते रहते हैं और खाते शुद्ध भोजन हैं। जुआ, सट्टा, बदनी तो करते है और प्रातः-शाम सामायिक में बैठ जाते हैं। भाव तो दूसरे को ठगने का करते हैं और स्वाध्याय में शास्त्र के पोथे के पोथे पढ़ जाते हैं। बाहर में तो गरम वस्त्र का त्याग कर देते हैं अन्दर में मिथ्यात्व, माया निदान की पोट हैं। बाहर में पूजा करते हैं अन्दर में रात्रि भर ताश खेलते हैं। पाँचों पाप भी करते रहते हैं और बाहर में सबसे अधिक धर्मात्मा भी बने रहते हैं। बाहर में तो सम्यक्त्व के आठ अंग पालते हैं, पढ़ते हैं अन्दर में धर्मात्माओं को ठगने से भी नहीं चूकते। ऐसे लोग भले ही अपने को धर्मात्मा समझें किन्तु वे जैनधर्म सुनने के पात्र भी नहीं है नाम जैन भी नहीं है और "हाय व्यवहार धर्म नष्ट हो जायेगा" इसकी दुहाई देते हैं। कहने का आशय थोड़े में इतना ही है कि ऐसे क्रम भंग त्याग की जैन पद्धति नहीं, न उसमें कुछ धर्म है। उपर्युक्त कड़े शब्दों में जरूर लिखा है किन्तु सत्य है या झुठ यह अपने अनुभव से मिलाकर देखें। हमने भी बहुत अनुभवपूर्वक लिखा है।"
उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि टीकाकार ने एक स्थान पर नहीं अनेक स्थानों पर अपने मन्तव्य दिये जो उनकी निर्भीकता एवं विद्वता का स्पष्ट प्रमाण है।
मैं कई विषयों पर विस्तार से लिखना चाहता था परन्तु प्रशासनिक दायित्व के कारण चाहते हुए भी नहीं लिख सका। मुझे आशा है कि इसका दूसरा संस्करण शीघ्र प्रकाशित होगा उसमें मैं विस्तार से लिख सकूँगा।
इस टीका के व्यवस्थित रूप से प्रकाशित हो जाने से पाठ्यक्रम में निर्धारित होने के कारण छात्रों को अत्यधिक उपयोगी है साथ ही स्वाध्याय करनेवाले भन्यात्माओं को तो इस ग्रन्थ का रहस्य सुगमता से ज्ञात हो जायेगा।
इस टीकाको श्री महावीरप्रसादजी जैन अलवर वालों ने स्वाध्याय करके इसका महत्त्व समझा और प्रकाशित क का दायित्व अपने साथियों के सहयोग से किया, यह जिनवाणी की महती सेवा है। वस्तुतः जैन साहब पूर्व में पुलिस प्रशासकीय सेवा में थे परन्तु उनकी स्वाध्याय रुचि ने ही पं. सरनारामजी जैन को प्रकाश में लाने का सराहनीय प्रयास किया है। इससे विद्जगत आपका सदैव ऋणी रहेगा। जैनं जयतु शासनम्
श्रुतपञ्चमी दिनांक : २२.५.९६
डॉ. शीतलचन्द जैन
प्राचार्य श्री दिगम्बर जैन आचार्य संस्कृत कॉलेज मनिहारों का रास्ता, जयपुर - ३(राज.)