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प्रस्तावना कविवर राजमल्लकृत पञ्चाध्यायी जैन दर्शन का महत्वपूर्ण एवं अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की उपयोगिता इसी से स्पष्ट है कि इसको विभिन्न विश्वविद्यालयों एवं समाज के विभिन्न परीक्षालयों के पाठ्यक्रमों में स्थान दिया गया है। ग्रन्थ के स्वरूप और ग्रन्थकार के विषय में प्रस्तुत संस्करण के पूर्व प्रकाशित प. मक्खनलालजी शास्त्री द्वारा की गई सबोधिनी टीका जो इन्दौर से वी. नि.सं. २४४४ में प्रकाशित हुई उसमें प्रकाश डाला गया है। इसके बाद पं. देवकीनन्दन सिद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखी गई हिन्दी टीका जो श्री गणेशवर्णी दि. जैन शोध संस्थान, वाराणसी से वी.नि.स.२५१२ में प्रकाशित हुई उसमें पं. फूलचन्द सिद्धान्त शास्त्री ने काफी विद्वतापूर्ण एवं महत्वपूर्ण प्रस्तावना लिखी है। जिसमें उन्होंने ग्रन्थ एवं ग्रन्धकार के सम्बन्ध में ऊहापोह करके काफी विवेचना की है।
ग्रन्थकारने पाँच अध्यायों में पूर्ण करने के उद्देश्य से ही ग्रन्थ का नाम पञ्चाध्यायी रखा। जैसा कि पञ्चाध्यायावयवं मम कर्तुग्रन्थराजमात्मवशात इत्यादि श्लोक के पूर्वार्ध से ज्ञात होता है कि ग्रन्थकार को यह ग्रन्थ पाँच अध्यायों में लिखना अभीष्ट था परन्तु वे किन्हीं अपरिहार्य कारणों से पूरा नहीं कर सके। ग्रन्थ के विषय से ही स्पष्ट है कि वे ग्रन्ध के डेढ़ अध्याय ही लिख सके।
इस ग्रन्थ के रचनाकार के बारे में कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलने के कारण कई वर्षों तक इस ग्रन्थ के रचयिता के रूप में आ. अमृतधन्द स्वीकार किये गये परन्तु स्व.पं. जुगलकिशोर मुख्तार के अथक परिश्रम एवं तर्कसंगत प्रयासों के आधार पर इस ग्रन्थ के रचयिता प. राजमल्लजी विदज्जगत में स्वीकार किये गये। अतः इस विषय में लिखकर पुनरावृत्ति करना उचित नहीं समझता। टीकाकार
इस ग्रन्थाधिराज पर तीन प्रसिद्ध विद्वानों ने टीका लिखी है। प्रथम टीकाकार के रूप में पं. मक्खनलाल शास्त्रीजी ने सर्वप्रथम टीका लिखकर विषय को स्पष्ट किया है। टीका अन्वयार्थक नहीं है, भावार्थक है। उस भावार्थ में पण्डितजी ने कई स्थानों पर अपना मन्तव्य प्रकट किया है जो पाठक को हदयपाही है।
पं. देवकीनन्दन शास्त्री दूसरं टीकाकार हैं जिन्होंने विषय को कार्फी स्पष्ट किया है। विशेधार्थ में कई विषयों पर अपने मन्तव्य भी प्रकट किये हैं जिसका स्पष्ट खुलासा पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने अपनी प्रस्तावना में किया है। जैसे - स्त्री-पुरुष नपुंसक वेद की चर्चा, निश्चय व्यवहार की चर्चा विषयों पर विशद विवेचन है।
तीसरं टीकाकार के रूप में पं.सरनाराम जैन का नाम आता है जो अभी तक विद्वजगत में प्रसिद्ध नहीं है उसका कारण है कि वे परम्परागत विद्वान नहीं हैं। अपितु स्वाध्याय के आधार पर जो उन्होंने अनुभव किया और आगम में अध्ययन किया उसके आधार पर अध्यात्मचन्द्रिका' टीका विस्तार से लिखी है। पूर्व में लिखी गई दो टीकाओं से यह टीका बहुत विस्तृत एवं अत्यन्त उपयोगी है। इस टीका की विशेषता है कि पण्डितजी ने सैद्धान्तिक शब्दों को अपनी भाषा में सीधी-सरल सुबोध शैली में पाठकों के सामने विषय को प्रस्तुत किया है। कुछ विषयों को तो इतना स्पष्ट कर दिया है कि पाठक को द्रव्य, गुण,पर्याय जैसी कठिन चर्चा बिल्कुल सरल प्रतीत होने लगेगी जैसे द्रव्य के निरूपण में द्रव्य के पर्यायवाची शब्दों को देकर के पाठकों की इस भ्रान्ति को निर्मल कर दिया है 'अन्चय-अर्ध' धर्मी जैसे शब्दों के अर्थ भी द्रव्य ही हैं। टीकाकार को विस्तृत ज्ञान था, यही कारण है द्रव्य के जितने पर्यायवाची शब्द हो सकते हैं वे सभी खोज करके एक स्थान पर रख दिये। इसी प्रकार गुण-पर्याय के भी पर्यायवाची एवं उनकी स्पष्ट विवेचना काफी प्रभावी ढंग से की गई है।
टीकाकार द्वारा लिखित भावार्थ और उस भावार्थ में दिये गये कोष्ठक में दिये गये विशेषार्थ पाठकों को अत्यन्त उपयोगी है।
प्रत्येक अधिकार एवं अवान्तर अधिकार के पश्चात् दिये गये भावार्थ एवं प्रश्नोत्तरों ने तो ग्रन्थ को बहुत ही महत्त्वपूर्ण बना दिया है। विषय की विवेचना के पूर्व कठिन शब्दों का खुलासा इस टीका की महत्वपूर्ण उपलब्धि