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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
का स्वामी है अर्थात् वह सदा विवक्षित पक्ष पर आरूढ़ रहता है और दूसरे प्रतिपक्ष नय की अपेक्षा भी रखता है किन्तु निक्षेप में यह बातें नहीं है ) । जो पदार्थ में गुणों का आक्षेप किया जाता है वह निक्षेप है। वह निक्षेप केवल उपचरित ( व्यवहार चलाने के लिये ) होता है।
भावार्थ • नय और निक्षेप का स्वरूप कहने से ही शंकाकार की शंका का परिहार हो जाता है। सबसे बड़ा भेद तो इनमें यह है कि नय तो वास्तविक ज्ञान विकल्प है और निक्षेप पदाथों में व्यवहार के लिये किये गये संकेतों का नाम है। इस श्लोक में 'गुणाक्षेप: 'पद आया है उसका अर्थ चारों निक्षेय में इस प्रकार घटित होता है - नाम-अतद्गुण पदार्थ में केवल व्यवहारार्थ किया हुआ आक्षेप है। स्थापना में अतद्गुण पदार्थ में किया हुआ गुणों का आक्षेप है। द्रव्य में - भावि तद्गुण में वर्तमानवत् किया हुआ गुणों का आक्षेप है। भाव में वर्तमान तद्गुण में किया हुआ वर्तमान गुणों का आक्षेप है। इस प्रकार गुणों का आक्षेप ही निक्षेप है।
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निक्षेपः स चतुर्धा नाम ततः स्थापना ततो दव्यम् । भावस्तल्लक्षणमिह भवति यथा लक्ष्यतेऽधुना चार्यात् ॥ ७४१ ॥
अर्थ • वह निक्षेप चार प्रकार है ( १ ) नाम ( २ ) स्थापना ( ३ ) द्रव्य ( ४ ) भाव। अब अर्थ से इन चारों का लक्षण जिस प्रकार से है उस प्रकार से कहा जाता है।
वस्तुन्यतद्गुणे खलु संज्ञाकरणं जिनो यथा नाम ।
सोऽयं तत्समरूपे तद्बुद्धिः स्थापना यथा प्रतिमा ॥ ७४२ ॥
अर्थ - (१) किसी वस्तु में उसके नाम के अनुसार गुण तो न हों। केवल व्यवहार चलाने के लिये उसका नाम रख देना नाम निक्षेप है। जैसे किसी पुरुष में कर्मों के जीतने का गुण सर्वथा नहीं है, वह मिध्यादृष्टि है। उसको बुलाने के लिये 'जिन' यह नाम रख दिया जाता है। (३) किसी समान आकारवाले पदार्थ में गुण तो वे न हों परन्तु उसमें उन गुणों की बुद्धि रखना और उसका "यह वही है" ऐसा व्यवहार करना स्थापना निक्षेप है जैसे प्रतिमर । [ जैसे पार्श्वनाथ की प्रतिमा को मन्दिरजी में हम पूजते हैं। यद्यपि प्रतिमा पुरुषाकार है परन्तु है पाषाण की। उस पाषाण की प्रतिमा में उन पार्श्वनाथ भगवान के जीव की जो कि अनन्तगुणधारी अरहन्त थे स्थापना करना और व्यवहार करना कि यह प्रतिमा ही पार्श्वनाथ है - स्थापना निक्षेप है ]।
ऋजुनयनिरपेक्षतया सापेक्ष
भाविनैगमादिनयैः ।
छद्मस्थो जिनजीवो जिन इव माग्यो यथात्र तद्द्रव्यं ॥ ७४३ ॥
अर्थ - जिसमें ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा नहीं है किन्तु जो भाविनैगमादि नयों की अपेक्षा से होता है वह द्रव्य निक्षेप है जैसे छद्यस्थ जिनके जीव को साक्षात् जिनके समान समझना द्रव्य निक्षेप है।
भावार्थ - ऋजुसूत्र नय का विषय वर्तमान है तथा भाविनैगम नय का विषय ' नियम से होने वाला' है। इन दोनों नयों में से ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा न करके भाविनैगम नय की अपेक्षा से नियम से होने वाले को वर्तमान में कहना द्रव्य निक्षेप है जैसे छद्मस्थ अवस्था में वर्तमान जिनके जीव को 'जिन' कहना - द्रव्य निक्षेप है। भगवान को गर्भ, जन्म, गृहस्थ, अवस्था में भी केवली जिनवत् इसी निक्षेप से मानते हैं।
तत्पर्यायो आवो यथा जिनः समवशरणसंस्थितिकः । घातिचतुष्टयरहितो ज्ञानचतुष्टययुतो हि दिव्यवपुः ॥ ७४४ ॥
अर्थ वर्तमान में जिस पदार्थ की जो पर्याय हो, उसको उसी रूप कहना भावनिक्षेप है। जैसे समवशरण में विराजमान, चार घातिया कर्मों से रहित, अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय से युक्त, दिव्य परमोदारिकं शरीर में स्थित अरहन्त जिनको 'जिन' कहना भाव निक्षेप है। अब ग्रन्थाकार उक्त कथन में आगम प्रमाण देते हैं।
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