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________________ T प्रथम खण्ड / तृतीय पुस्तक २०१ णामजिणा जिणणामा म्हणजिणा जिणिदपडिमाए ।* दस्वजिणा जिणजीवा भावजिणा समवसरणत्था ॥ अर्थ - जिननाम वाला व्यक्ति नाम जिन है, जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा यह स्थापना जिन है, जो आगे जिन होने वाला है वह द्रव्य जिन है और समवशरण में विराजमान भगवान् भावजिन है। उपसंहार दिङ्मात्रमत्र कथितं व्यासादपि तच्चतुष्टयं यावत् । प्रत्येकमुदाहरणं यं जीरकेषु चार्थेषु ॥ ७४५ ॥ अर्थ - यहाँ पर चारों निक्षेपों का नाम मात्र ( संक्षिप्त ) स्वरूप कहा गया है। इनका विस्तार से स्वरूप जैसा है वैसा तथा जीवादि पदार्थों में प्रत्येक का उदाहरण सुघटित करके आगम से जानना चाहिये। भावार्थ - ग्रन्थकार ने निक्षेपों पर अधिक प्रकाश नहीं डाला है क्योंकि ये अध्यात्म में अधिक काम नहीं आते। आगम में अधिक काम आते हैं सो ग्रन्थकार ने लिख दिया है कि आगम से यथायोग्य जान लेना । निक्षेप अधिकार का सार अर्थ - प्रकृत में निक्षेप का स्वरूप बतलाते हुए नय से उसमें क्या भेद है यह भी बतलाया गया है। निक्षेप शब्द नि उपसर्ग पूर्वक क्षिप् धातु से बनता है जिसका व्युत्पत्त्यर्थं निक्षिप्त करता होता है। आशय यह है कि लोक में जितना भी शब्द व्यवहार होता है उसका विभाग द्वारा वर्गीकरण कर देना ही निक्षेप का काम है। नय विषयी हैं किन्तु निक्षेप शब्दादिक विषय विभाग का ही प्रयोजक है। इसलिये इन दोनों में बहुत भेद है। निक्षेप केवल यह बतलाता है कि हमने जिस शब्द या वाक्य का प्रयोग किया है वह किस विभाग में सम्मिलित किया जा सकता है किन्तु नय उस शब्द प्रयोगों में जो आन्तरिक मानस परिणाम कार्य कर रहा है उसका उद्घाटन करता है। वह बतलाता है कि यह शब्द प्रयोग किस दृष्टिकोण से ठीक है। निक्षेप व्यवस्था के अनुसार समस्त वचन प्रयोग नामादि चार भागों में विभक्त किया जा सकता है अतः निक्षेप के चार भेद माने गये हैं। निक्षेप ज्ञेय पर लगते हैं और नय ज्ञान के अंश हैं यह सबसे बड़ा अन्तर है। निक्षेपों का निरूपण समाप्त हुआ। ग्यारहवां अवान्तर अधिकार नय प्रमाण को लगाने की पद्धति ७४६ से ७६८ तक प्रतिज्ञा उक्तं गुरूपदेशान्जयनिक्षेपप्रमाणमिति सावत् । द्रव्यगुणपर्ययाणामुपरि यथासंभवं दधाम्यधुना ॥ ७४६ ॥ अर्थ - पहले गुरु ( परमगुरु अरहन्त- अपरगुरु गणधरादि आचार्यों) के उपदेशानुसार नय प्रमाण और निक्षेप का स्वरूप कहा। अब द्रव्य, गुण, पर्यायों के ऊपर इनको यथायोग्य अर्थात् वस्तु स्वभाव के नियमानुसार लगाता हूँ ( अर्थात् द्रव्य, गुण और पर्यायों में से नय और प्रमाण का विषय कौन और किस प्रकार होता है। नय प्रमाण किस-किस को विषय करते हैं यह दर्शाता हूँ ) यह प्रतिज्ञा द्रव्य, गुण, पर्याय, एकअनेक, अस्ति नास्ति, नित्य- अनित्य, तत् - अतत् सब पर लगाने की है। अब क्रमशः लगाते हैं। पहले द्रव्य, गुण, पर्याय पर नयप्रमाण लगाने की पद्धति ७४७ से ७५० तक तत्त्वमनिर्वचनीयं शुद्धद्रव्यार्थिकस्य भवति मतम् । गुणपर्ययवद् द्रव्यं पर्यायार्थिकनयस्य पक्षोऽयम् ॥ ७४७ ॥ अर्थ - तत्त्व अर्थात् द्रव्य अनिर्वचनीय (वचन का अविषय- अभेदरूप- अखण्ड सामान्य ) है यह शुद्धद्रव्यार्थिक जय का पक्ष (विषय) है तथा द्रव्य गुणपर्यायवाला है (भेद रूप है ) यह पर्यायार्थिक नय की मान्यता है। * नोट (१) अध्यात्म में मेरे देखने में भाविद्रव्यनिक्षेप तो आया है। भूत द्रव्य निक्षेप नहीं आया है। सर्वार्थसिद्धि में भी नहीं है। श्री अमृतचन्द्रजी ने तत्त्वार्थसार में भी नहीं दिया है। भगवान् कुन्दकुन्द आचार्यदेव ने भी कहीं नहीं दिया है। (२) अतदाकार स्थापना का स्वरूप भी अध्यात्म शास्त्रों में मेरे देखने में नहीं आया है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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