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________________ प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक वेटा: प्रमाणपत्र तु हेतुः केवलमपौरुषेयत्वम् । आगमगोचरताया हेतोरन्याश्रितादहेतुत्वम् ॥ ७३६ ॥ अर्थ - "वेद प्रमाणा है "(ऐसा वेदान्ती मानते हैं और उसमें केवल अपौरुषेयत्व हेतु द्वारा प्रमाणता लाते हैं किन्तु अपौरुषेयत्व रूप हेतु के आगम गोचरता होने से अन्याश्रितपना है। इसलिये वह हेतु अहेतु हो जाता है। भावार्य - वेदों को सामान मानने वाले वेदों की प्रमाणता में अपौरुषेयत्व हेतु बतलाते हैं अर्थात् उनका यह कहना है कि पुरुष राग-द्वेष से दूषित होते हैं। अतः पुरुषों के द्वारा निरूपित पदार्थ का स्वरूप प्रमाणिक नहीं कहा जा सकता है किन्तु जो पुरुषों के द्वारा प्रतिपादित न हो वही प्रमाणिक हो सकता है। वेद अपौरुषेय है इसलिये वहीं प्रमाण है इस प्रकार अपौरुषेयत्व हेतु से वेद में प्रमाणता सिद्ध करते हैं परन्तु यहाँ पर वेद की प्रमाणिकता में जो अपौरुषेयत्व हेत दिया है वह उनके आगम से ही सिद्ध है युक्ति से नहीं। इसलिये वह अपौरुषेयत्व हेतु आगम के आश्रित होने से अन्याश्रित (आगमाश्रित ) है और अन्याश्रित होने से समीचीन हेतु नहीं कहा जा सकता है कारण कि अपने-अपने अनुयायी वर्ग ही आगम प्रमाण को प्रमाण मानने के लिये बाध्य होते हैं इतर नहीं क्योंकि सर्व साधारण तो युक्ति सिद्धि कथन को ही प्रमाण मानने के लिये बाध्य किये जा सकते हैं। सारांश यह है कि अपौरुषेयत्व हेतु आगमाश्रित होने से स्यावादियों के प्रति असिद्ध है। एवमनेकविध स्यादिह मिथ्यामत कदम्बकं यावत् । अनुपादेयमसारं वृद्धैः स्यादवाटवेदिभिः यावत् ॥ ७३७ ।। भावार्थ - इस प्रकार जितना भी अनेक विध प्रचलित मिथ्या मतों का समूह है वह सब असार है इसलिये वह शास्त्रानुसार स्यावाद वेदी वृद्ध ( अनुभवी) पुरुषों द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं हैं। प्रमाणाभास का निरूपण समाप्त हुआ । दसवां अवान्तर अधिकार निक्षेपों का वर्णन ( ७३८ से ७४५ तक) प्रतिज्ञा उक्तं प्रमाणलक्षमजुभवगम्यं यथागमज्ञानात् । अधुना निक्षेपपदं संक्षेपाल्लक्ष्यते यथालक्ष्म ॥ ७३८ ॥ अर्थ-आगम ज्ञान के अनुसार, अनुभव में आने योग्य प्रमाण का लक्षण कहा। अब संक्षेप से निक्षेपों का स्वरूप उसके लक्षणानुसार कहा जाता है। शंका ननु निक्षेपो न नयो न च प्रमाणे न चांशकं तस्य । पृथगुद्देश्यत्वादपि पृथगिव लक्ष्यं स्वलक्षणादिति चेत् ॥ ७३९ ॥ अर्थ – निक्षेप न नय है और न प्रमाण है और न उसका अंश है। नय प्रमाण से निक्षेप का उद्देश्य (निर्देश) ही जुदा है। उद्देश्य जुदा होने से उसका लक्षण ही जुदा है । इसलिये लक्ष्य भी स्वतन्त्र होना चाहिये ? अर्थात् निक्षेप प्रमाण नय से सब जुदा है तो उनके समान इसका भी स्वतन्त्र ही उल्लेख करना चाहिये? समाधान सत्यं गुणसापेक्षो सतिपक्षः स च नयः रवपक्षयति:। य इह गुणाक्षेपः स्यादुपचरितः केवलं स निक्षेपः ॥ ७४०॥ अर्थ-जो आपने कहा ठीक है ऐसा ही है। क्योंकि जो गुणों की अपेक्षा से प्रयोग होता है, अपने पक्ष का स्वामी है और विपक्ष सहित है बह नय है ( नय जैसा कहता है वस्तु में वैसा गुण पाया जाता है। नय सदा अपने विवक्षित पक्ष * 'स्वपक्षपति' के स्थान पर 'स्वयंक्षिपति' पाठ भी मिलता है। हमें वह नहीं जंचा है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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