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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ - जिस समय ज्ञान करण रूप में प्रमाण है उस समय उस ज्ञान के अविनाभाव रखने वाला हेय का त्याग, उपादेय का ग्रहण और अज्ञा- निवृत्ति गाका कलर हो गाद है।
नाप्येतदपसिद्धं साधनसाध्यद्धयोः सदृष्टान्तातु
न बिना ज्ञानात् त्यागो भुजगादेवा गाद्यपादानम् ॥ ७३२॥ अर्थ- साधन भी ज्ञान पड़ता है और साध्य भी ज्ञान पड़ता है यह बात असिद्ध नहीं है किन्तु दृष्टान्त से सुप्रसिद्ध है। यह बात प्रसिद्ध है कि ज्ञान के बिना सर्यादि अनिष्ट पदार्थों का त्याग और माला आदि इष्ट पदार्थों का ग्रहण नहीं होता है।
भावार्थ - प्रमाण का स्वरूप इस प्रकार कहा है "जो हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने में समर्थ है वह प्रमाण है अत: वह ज्ञान ही हो सकता है अन्य सन्निकर्षादिक नहीं"।हित नाम सुख और सुख के कारणों का है। अहित नाम दुःख और दःख के कारणों का है। जो हित की प्राप्ति और अहित का परिहार कराने में समर्थ है वही प्रमाण होता है ऐसा प्रमाण ज्ञान ही हो सकता है क्योंकि सुख और सुख के कारणों का परिज्ञान तथा दुःख और दुःख के कारणों का परिज्ञान सिवाय ज्ञान के जड़ पदार्थों से नहीं हो सकता है। जान में ही यह सामर्थ्य है कि वह सादि अनिष्ट पदार्थों में त्यागरूप बुद्धि और माला आदि इष्ट पदार्थों में ग्रहण रूप बुद्धि करावे। इसलिए प्रमाण ज्ञान ही हो सकता है तथा फल भी ज्ञान रूप ही होता है यह बात प्रायः सर्वसिद्ध है कारण प्रमाण का फल अज्ञान निवृत्ति रूप होता है। ऐसा फल ज्ञान ही हो सकता है, जड़ नहीं।
उक्तं प्रमाणलक्षणमिह यदनार्हतं कुवादिभिः स्वैरम् । तल्लक्षणदोषत्वात्तसर्वं
लक्षणाभासम् ॥ ७३३॥ अर्थ - जो कुछ प्रमाण का लक्षण कुवादियों ने स्व-इच्छा पूर्वक कहा है वह आहत (जैन) लक्षण नहीं है। उसमें लक्षण के दोष आते हैं। अतः वह ( लक्षण नहीं किन्तु) लक्षणाभास हैं।
भावार्थ - अन्य वादियों के द्वारा माने गये प्रमाण के लक्षण अव्याप्ति अतिव्यप्ति और असंभव रूप लक्षण के दोषों से दुषित हैं। यही बात नीचे स्पष्ट करते हैं:
स यथा चेप्रमाणं लक्ष्यं तल्लक्षणं प्रमाकरणम् ।
अव्याप्तिको हि टोषः सदेश्वरे चापि तदयोगात् ।। ७३४ ॥
'खलासा इस प्रकार है- यदि प्रमाण लक्ष्य है और उसका प्रमाकरण लक्षण है तो अव्याप्ति दोष आता है क्योंकि प्रमाणभूत ईश्वर के सदैव रहने पर भी उसमें प्रमाकरण प्रमाणं' यह प्रमाण का लक्षण नहीं घटता है।
भावार्थ - नैयायिक ईश्वर को प्रमाण तो मानते हैं। वे कहते हैं "ईश्वर मुझे प्रमाण है" परन्तु वे उस ईश्वर को प्रमाकाकरण नहीं मानते हैं किन्तु उसका उसे अधिकरणमानते हैं। उनके मत से ईश्वर प्रमाण है तो भी उसमें प्रमाकरण रूप प्रमाण का लक्षण नहीं रहता। इसलिये लक्ष्य के एक देश-ईश्वर में प्रमाग का लक्षण न जाने से अव्याप्ति दोष बना रहा।
योगिज्ञानेऽपि तथा न स्यातल्लक्षणं प्रमाकरणम ।
परमाण्वादिषु जियमान्न स्यात्तत्सन्जिकर्षश्च ।।७३५।। अर्थ – इसी प्रकार जो लोग प्रमाकरण प्रमाण का लक्षण करते हैं उनके यहाँ योगियों के ज्ञान में भी उक्त लक्षण नहीं जाता है क्योंकि उन्हीं लोगों ने योगियों के ज्ञान को दिव्य ज्ञान माना है। वह सूक्ष्म और अमूर्त पदार्थों का भी प्रत्यक्ष करता है ऐसा वे स्वीकार करते हैं परन्तु परमाणु आदि पदार्थों में इन्द्रिय सन्निकर्ष नियम से नहीं हो सकता है।
भावार्थ - इन्द्रिय सत्रिकर्ष अथवा इन्द्रिय व्यापार ही को वे प्रमाकरण बतलाते हैं। यह सन्निकर्ष और व्यापार स्थूल मूर्त पदार्थों के साथ ही हो सकता है। सूक्ष्म परमाणु तथा अमूर्त और दूरवर्ती पदार्थों का वह नहीं हो सकता है। इसलिये सन्निकर्ष अथवा इन्द्रिय व्यापार प्रमाकरण को प्रमाण मानने से योगीजन सूक्ष्मादि पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते परन्तु वे करते हैं ऐसा वे मानते हैं। इसलिये योगिजनों में उनके मत से ही प्रमाकरण लक्षण नहीं जाता है। यदि वे योगियों को प्रमा का करण स्वयं नहीं मानते हैं तो उनके मत से ही प्रमाण का लक्षण अव्याप्ति दोष से दूषित हो गया क्योंकि उन्होंने योगियों के ज्ञान को प्रमाण माना है।