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प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक
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समाधान ७२८ से ७३७ तक नै यतः प्रमाणं फलं च फलवच्च तत्स्वयं ज्ञानम् ।
दष्टिर्यथा प्रदीपः स्वयं प्रकाश्यः प्रकाशकश्च स्यात् ।। ७२८॥ अर्थ - ऐसा नहीं है क्योंकि प्रमाण, उसका फल और उसका कारण वह स्वयं ज्ञान ही है। दृष्टांत - जैसे दीपक दूसरों का भी प्रकाश करता है और स्वयं अपना भी प्रकाश करता है अर्थात् दीपक स्वयं प्रकाश्य (जिसका प्रकाश किया जाय) भी है और वही प्रकाशक है।
भावार्थ-दीपक के दृष्टान्त के समान प्रमाण भी ज्ञान ही है। प्रमाण का कारण भी ज्ञान ही है और प्रमाण का फल भी ज्ञान ही है ज्ञान से भिन्न न कोई प्रमाण है और न उसका फल ही है। यहाँ पर यह शंका अभी खड़ी ही रहती है कि दोनों को ज्ञान रूप मानने से दोनों एक ही हो जायेंगे अथवा फलशून्य प्रमाण और प्रमाणशून्य फल हो जायेगा परन्तु विचार करने पर यह शंका भी निर्मुल ठहरती है। जैन सिद्धान्त में प्रमाण और प्रमाण का फल सर्वथा भिन्न नहीं है किन्तु कथंचित् भिन्न है। कथंचित् भेद में ज्ञान की पूर्व पर्याय प्रमाण रूप पड़ती है उसकी उत्तर पर्याय फ पड़ती है क्योंकि प्रमाणका फल अज्ञान निवृत्ति माना है तथा हेयोपादेय और उपेक्षा भी प्रमाण का फल है। जो प्रमाण रूप ज्ञान है वहीं ज्ञान-अज्ञान से निवृत्त होता है और उसी में हेयोपादेय तथा उपेक्षा रूप बुद्धि होती है। इसलिये ज्ञान ही प्रमाण और जान ही फल सिद्ध हो चुका। साथ ही प्रमाण और प्रमाण का फल दोनों एक हो जायेंगे अथवा फलशून्य प्रमाण हो जायेगा इस शंता का परिहार भी हो चुका।
उक्तं कदाचिदिन्द्रियमथ च तदर्थेन सन्जिकर्षयुतम् ।
भवति कदाचिज्ज्ञानं त्रिविध करणं प्रमायाश्च ॥ ७२९॥ अर्थ -कभी इन्द्रिय को, कभी अपने विषय के सन्निकर्ष सहित इन्द्रिय को और कभी ज्ञान को, इस प्रकार तीन प्रकार प्रमा ( प्रमाण का फल)का करण वैशेषिकों के यहाँ कहा है।
पूर्वं पूर्व करणं तत्र फलं चोतरोतरं ज्ञेयम् ।
न्यायात्सिद्धमिट चित्फलं च फलवच्च तत्रचयं ज्ञानम् ॥ ७३०॥ अर्थ – इन तीनों में पहला-पहला कारण और आगे-आगे का फल उनके कहे अनुसार जानना चाहिये। इस न्याय से तो यह स्वयं सिद्ध हो गया कि वह ज्ञान ही स्वयं फल है और ज्ञान ही स्वयं फलवान (प्रमाण) है।
भावार्थ - ७२९-७३०(१)कभी इन्द्रियों को प्रमाण कहा गया है। कभी इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष को प्रमाण कहा गया है। कभी ज्ञान को ही प्रमाण कहा गया है। इस प्रकार तीन प्रकार प्रमा का करण अर्थात् प्रमाण का परम साधक कारण कहा गया है। ये तीनों ही आत्मा की अवस्थायें हैं। पहली इन्द्रियरूप अवस्था भी आत्मावस्था है। दूसरी सन्निकर्ष विशिष्ट अवस्था भी आत्मावस्था है। तथा ज्ञानावस्था भी आत्मावस्था है अर्थात् तीनों ही ज्ञानरूप हैं। इन तीनों में पहला-पहला करण पड़ता है और आगे-आगे का फल पड़ता है। इसलिये यह बात न्याय से सिद्ध हो चुकी कि ज्ञान ही फल है और ज्ञान ही प्रमाण है।(२) वैशेषिकों के यहाँ प्रमा के करण तीन माने हैं। १. इन्द्रिय २. सन्निकर्ष सहित इन्द्रिय और ज्ञान। इनमें से इन्द्रिय का फल सन्निकर्ष सहित इन्द्रिय और सन्निकर्ष सहित इन्द्रिय का फल प्रमाण माना है। इस प्रकार जैसे वैशेषिकों के यहाँ मध्यवर्ती करण, पववती करण की अपेक्षा से फलरूप, अपने उत्तरवर्त करण की अपेक्षा से करणरूप पड़ जाने के कारण वह मध्यवर्ती करण, स्वयं करण वा फल रूप माना जाता है वैसे ही ज्ञान भी अजान निवृत्ति की अपेक्षा से फलरूप और प्रामाण्य की उत्पत्ति की अपेक्षा से प्रमाणरूपहो जाता है इसलिये प्रमाणात्मक ज्ञान ही स्वयं फल वा फलवान है ऐसा मानना युक्तियुक्त है।
तत्रापि यदा करणं ज्ञानं फलसिद्धिरस्ति नाम तदा ।
अविजाभावेन चितो हानोपादानबुद्धिसिद्धल्चात् ॥ ७३१॥ अर्थ – उनमें भी जिस समय ज्ञान करण पड़ता है उस समय फल सिद्धि है क्योंकि अविनाभाव से चेतना( आत्मा की हान उपादान बुद्धि की सिद्धि देखी जाती है और यही ज्ञान का फल है ( अर्थात् पूर्वज्ञान करण और उत्तरज्ञान फल पड़ता है और यह बात असिद्ध भी नहीं है)।