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________________ प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक १९५ नासिद्धमेतदुक्तं तदिन्द्रियानिन्दियोदभवं सूयात् । स्यान्मतिनाने यत्सतपर्वकिल भवेच्छलझानम ॥ ७१७॥ अर्थ - यह बात असिद्ध भी नहीं है और सूत्र द्वारा भी यह बतलाया जा चुका है कि मतिज्ञान और उस मतिपूर्वक श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होते हैं। अयमर्थो भावमनो ज्ञानविशिष्टं स्वयं हि सदमूर्तम् । तेनात्मदर्शनमिह प्रत्यक्षमतीन्द्रियं कथं न स्यात् ॥ ७१८॥ अर्थ - भाव यह है कि भाव मन जब विशेष ज्ञान विशिष्ट (अमूर्त अपनी आत्मा को जानने वाला) होता है तब वह स्वयं अमूर्त स्वरूप हो जाता है। उस अमूर्त मन रूप ज्ञान द्वारा आत्मा का प्रत्यक्ष होता है। इसलिये यह प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय क्यों न होगा? अर्थात् केवल स्वात्मा को जानने वाला जो मानसिक ज्ञान है वह अवश्य अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है। अगली भूमिका - इस मतिश्रुतज्ञानात्मक भाव मन को स्वात्मानुभूति के समय में प्रत्यक्ष मानने में आया है और इसी के कारण केवल ज्ञान की उत्पत्ति हो जाती हैं। अवधि, मन:पर्यय, ज्ञान, केवलज्ञान उत्पत्ति में कारण नहीं है। अपि चात्मसंसिद्धयै नियतं हेतु मतिश्रुतज्ञाले । प्रान्त्यद्वयं बिना स्यान्मोक्षो न स्याद ऋते मतिद्वैलम् ॥ ७१९॥ अर्थ - तथा आत्मा की भले प्रकार सिद्धि के लिये मतिश्रुत ये दो ही ज्ञान नियत कारण है। कारण इनका यह है कि अवधि और मनःपर्यय ज्ञानों के बिना तो मोक्ष हो जाता है परन्तु भतिश्रुत के बिना कदापि नहीं होता। नोट - (१) मति श्रुत ज्ञान शुद्ध स्वात्मानुभूति के समय में निरपेक्ष ज्ञानवत् प्रत्यक्ष हैं यह बात केवल श्री समयसारजी अध्यात्म ग्रंथ में मिल सकती है, सिद्धान्त ग्रंथों में नहीं मिलेगी क्योंकि यह उनका विषय नहीं है। अतः सिद्धांत ग्रंथों में न मिलने के कारण संदिग्ध नहीं है। (२) साथ ही अवधि, मन:पर्यय ज्ञान निश्चय से परोक्ष है। उपचार से एकदेश प्रत्यक्ष हैं यह भाव श्री प्रवचनसार तथा नियमसारजी में झलकता है। यह भी अध्यात्म का विषय है। सिद्धान्त शास्त्रों में तो केवल एक देश प्रत्यक्ष ही लिखा मिलेगा।पर सिद्धान्त शास्त्रों में ऐसा न मिलने के कारण यह भी शंकास्पद नहीं है। अध्यात्म के मर्मज्ञ को बराबर अनुभव में आयेगा। यह कहना भी किसी हद तक उचित है कि अध्यात्म और सिद्धान्त की लाइन ही कुछ भिन्न है पर इसका यह मतलब नहीं कि दोनों का मेल नहीं है। गुरु गम से दोनों के अभ्यसित को बराबर अनुसंधान बैठता है। पर चाबी गुरु के हाथ है यह निस्सन्देह है। प्रमाण के भेदों का कथन पूरा हुआ। नवां अवान्तर अधिकार प्रमाणाभास का निरूपण (७२० से ७३७ तक) नजु जैनानामेतन्मतं मतेष्वेवं लापरेषां हि । विप्रतिपत्तौ बहवः प्रमाणमिदमन्यथा वदन्ति यथा ।। ७२० ॥ अर्थ - जैनों के मत्त में ही प्रमाण की ऐसी व्यवस्था है। दूसरे मतों में ऐसा नहीं है। यह विषय विवादग्रस्त है क्योंकि बहुत से मत प्रमाण का स्वरूप दूसरे ही प्रकार कहते हैं जैसे :भावार्थ - जैनियों ने ही ज्ञान को प्रमाण माना है। अन्यमती अन्य-अन्य वस्तुओं को प्रमाण मानते हैं जैसे - वेदाः प्रमाणमिति किल वदन्ति वेदान्तिनो विदाभासाः। यरमादपौरुषेयाः सन्ति यथा व्योम ते स्वतः सिद्धाः ।। ७२१॥ अर्थ-मिथ्याज्ञानी वेदान्त मत वाले कहते हैं कि वेद ही प्रमाण हैं क्योंकि वे पुरुष के बनाए हुए नहीं हैं किन्तु वे आकाश के समान स्वतः सिद्ध हैं।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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