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प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक
उपचार का कारण ७०३ से ७०५ तक तत्रोपचारहेतुर्यथा मतिज्ञानमक्षज नियमात् ।
अलार्म शतमधिल लथावधिचित्तपर्ययं ज्ञानम् ।। ७०३ ॥ अर्थ-उपचारका कारण भी यह है कि जिस प्रकार मतिजान नियम से इन्द्रियजन्य ज्ञान है और उस
नियम से इन्द्रियजन्य ज्ञान है और उस मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान भी इन्द्रियजन्य है। उस प्रकार अवधि और मनःपर्यय ज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं है। तथा -
यत्स्यादवग्रहहानायानतिधारणापरायत्तम
आद्यं ज्ञान द्वयमिह यथा तथा लैव चान्तिमं द्वैतम ॥७०४ || अर्थ - अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा के पराधीन जिस प्रकार आदि के दो ज्ञान होते हैं उस प्रकार अन्त के दो नहीं होते। तथा -
दूरस्थानऑजिह समक्षभिव वेत्ति हेलया यस्मात् ।
केवलमेव मनःसादतधिमनःपर्ययद्वयं ज्ञानम् ॥ ७०५ ॥ अर्थ - अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान दो ज्ञान केवल मन की सहायता से दरवर्ती पदार्थों को कौतुक के समान सकल प्रत्यक्षवत् जान लेते हैं। इन तीनों कारणों से इन दोनों ज्ञानों को उपचार से एक देश प्रत्यक्ष कहा है। वास्तव में ये परोक्ष हैं।
भावार्थ - ये दोनों ज्ञान ( अवधि मनःपर्यय ) युगपत्, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से दूरवर्ती पदार्थों को भी लीलामात्र में (क्षणमात्र में उपयोग लगाते ही) जान लेते हैं इसलिये इनको देशप्रत्यक्ष कहते हैं। मन सम्बन्धी विशेष चर्चा आगेश्लोक ७११ से ७१८ में है वहाँ से मन का स्वरूप जानना। अब मतिश्रुत की कुछ विशेषता बतलाते हैं।
अपि किशाभिनिबोधिकबोधद्वैत तदादिम यावत् ।
स्वात्मानुभूतिसमये प्रत्यक्षं तत्समक्षमिव जान्यत् ॥ ७०६ ॥ अर्थ-विशेष बात यह है कि मतिज्ञान और भूतज्ञान ये आदि के दो ज्ञान भी स्वात्मानुभूति के समय प्रत्यक्ष ज्ञान के समान प्रत्यक्ष हो जाते हैं और समय में नहीं (केवल स्वात्मानुभव के समय जो ज्ञान होता है वह यद्यपि मतिश्रुतज्ञान है तो भी वह वैसा ही प्रत्यक्ष है जैसा कि आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष होता है। ___ भावार्थ - इन पति और श्रुतज्ञानों में भी इतनी विशेषता है कि जिस समय इन द्वारा स्वात्मानुभूति होती है उस समय ये दोनों ज्ञान भी अतीन्द्रियस्वात्मा को प्रत्यक्ष करते हैं इसलिये ये दोनों ज्ञान भी स्वात्मानुभूति के समय में प्रत्यक्ष रूप हैं पर परोक्ष नहीं।
किन्तु तदिह द्वैतमिदं चित्स्पर्शादीन्द्रियविषयपरिवाहणे ।
व्योमाद्यवगमकाले भवति परोक्ष न समक्षमिह नियमात ॥ ७०७।। अर्थ - 'यह ही दोनों मतिश्रुत ज्ञान स्पर्शादि इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करने में तथा आकाश आदि के जानते समय नियम से परोक्ष है । परन्तु स्वात्मानुभूति के समयवत् ) प्रत्यक्ष नहीं हैं।
शंका ननु चाटो हि परोक्षे कथमिव सूत्रे कृतः समुद्देशः ।
अपि सल्लक्षणयोगात् परोक्षमिह सम्भवत्येतत् ॥ ७०८॥ शंका - (यदि स्वात्मानुभूति के समय मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष होते हैं तो फिर ) तत्त्वार्थ सूत्र में "आदि के दो ज्ञान परोक्ष हैं" ऐसा निर्देश क्यों किया है ? दूसरे इनमें परोक्ष का लक्षण "परसहाय सापेक्ष"घटित हो जाता है। इसलिये भी ये ज्ञान परोक्ष ही प्रतीत होते हैं।
भावार्थ - आगम प्रमाण से भी दोनों ज्ञान परोक्ष हैं तथा इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होने के कारण - भी मतिश्रुत परोक्ष हैं फिर ग्रन्थकार स्वात्मानुभूति काल में निरपेक्ष ज्ञान के समान उन्हें प्रत्यक्ष कैसे बतलाते हैं ?