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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
प्रत्यक्ष द्विविधं तत्सकलप्रत्यक्षमक्षय ज्ञानम् ।
क्षायोपशमिकमपर देशप्रत्यक्षमक्षयं क्षयि च ॥ ६९७|| अर्थ - प्रत्यक्ष दो प्रकार है(१)सकल प्रत्यक्ष (२) दुसरा विकल प्रत्यक्ष। जो अविनाशी (केवल)ज्ञान है वह सकल प्रत्यक्ष है। दूसरा विकल प्रत्यक्ष अर्थात् देश प्रत्यक्ष कर्मों के क्षयोपशम से होता है किन्तु कर्मों के क्षय से नहीं होता तथा विनाशीक भी है ( अस्ति-नास्ति से निरूपण करने की ग्रन्थकार की प्रकृति है तथा अध्यात्म ग्रंथ है अतः अक्षय क्षयि का अप्रतिपाती तथा प्रतिपाती अर्थ नहीं है तथा उसका प्रकरण भी नहीं है।
अयमों यज्ज्ञानं समस्तकर्मक्षयोदभवं साक्षात् ।
प्रत्यक्षं क्षायिकमिदक्षातीतं सुरवं तदक्षयिकम् ||६९८॥ अर्थ - इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि जो ज्ञान समस्त ( द्रव्य तथा भाव ) कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता है, साक्षात् अर्थात् आत्पमात्र सापेक्ष है, अतीन्द्रिय सुख रूप है, अविनाशी है, वह क्षायिक ज्ञान ( केवलज्ञान ) प्रत्यक्ष है।
देशप्रत्यक्षमिहाप्यवधिमनः पर्ययं च यज्ज्ञानम् ।
देशं जोइन्द्रियमन उत्थात प्रत्यक्षमितरनिरपेक्षात ।। ६९९॥ अर्थ - जो अवधि और मनःपर्यय ज्ञान हैं वे देश प्रत्यक्ष हैं। देश प्रत्यक्ष उन्हें क्यों कहते हैं ? देश तो इसलिये कहते हैं कि ये नोइन्द्रिय रूप मन से उत्पन्न होते हैं और प्रत्यक्ष इमलिय कहते हैं कि ये दूसरी इन्द्रियों की सहायता से निरपेक्ष हैं। ( मन का अवलम्बन बारहवें गुणस्थान तक हर समय रहता ही है अन्यथा केवली हो जाय - यही तो छमस्थ और केवली में अन्तर है)1
आभिनिनोधिकबोधो विषयतिषयिसन्निकर्षजस्तरमात् ।
भवति परोक्षं नियमादपि च मतिपुरस्सरं शुत ज्ञानम् ॥ ७०० ।। अर्थ- मति ज्ञान विषय और विषयी के सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है। इसलिये वह नियम से परोक्ष है और मतिज्ञान पूर्वक श्रुतज्ञान होता है अत: वह भी परोक्ष है।
छास्थावस्थायामातरणेन्द्रियसहायसापेक्षम् ।
यावज्ज्ञानचतुष्टयमर्थात सर्वं परोक्षमिव वाच्यम ॥ ७०१ ॥ अर्थ - अल्पज्ञ अवस्था में जितने भी ज्ञान हैं - मत्ति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय चारों ही आवरण और इन्द्रियों की सहायता की अपेक्षा रखते हैं इसलिये इन चारों ही ज्ञानों को वास्तव में परोक्ष के समान ही कहना चाहिये (अर्थात् मति, श्रत तो परोक्ष कहे ही गये हैं परन्तु अवधि, मन:पर्यय भी इन्द्रिय और आवरण की अपेक्षा रखते है। इसलिये वे भी परोक्ष तुल्य ही हैं - सहाय अर्थात् निमित्तमात्र)।
अवधिमनःपर्ययचिद्वैतं प्रत्यक्षमेकटेशत्वात् ।
केवलमिदमुपचारादथ च विवक्षावशान्न चान्वर्थात् ॥ ७०२ ॥ अर्थ - अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान ये दो ज्ञान एक देश प्रत्यक्ष कहे गये हैं परन्तु इसमें यह प्रत्यक्षता केवल उपचार से और विवक्षावश ही घटती है। वास्तव में ये प्रत्यक्ष नहीं हैं। (अध्यात्मदृष्टि में निश्चय से ये परोक्ष कहे जाते हैं। श्री कुन्दकुन्द आदि आचार्यों ने प्रत्यक्ष तो एक स्वभाव ज्ञान को ही कहा है। सिद्धान्त में व्यवहार से एक देश आत्मप्रत्यक्ष भी कहे जाते हैं। जैनधर्म जो विवक्षाधीन है। व्यवहार अपेक्षाओं को सिद्धान्त कहते हैं। निश्चय अपेक्षाओं को अध्यात्म कहते हैं।
भावार्थ – अवधि और मनःपर्यय ज्ञान को जो एक देश प्रत्यक्ष कहा है वह केवल उपचार से अथवा विवक्षावश कहा है कारण कि मतिश्रुत की तरह ये दोनों इन्द्रियसापेक्ष नहीं हैं परन्तु अतीन्द्रिय है तथा अपने-अपने विषय को एक देश से जितना जानते हैं उतना सकल प्रत्यक्ष की तरह ही जानते हैं इस विवक्षावश से उनको देशप्रत्यक्ष कहा है परन्तु वास्तव में वे क्षायोपशमिक ज्ञान ही हैं इसलिये प्रत्यक्षता का श्रीकुन्दकन्दकृत असहाय लक्षण न घटने से उन दोनों ज्ञानों को प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता। उपचार से इनको एकदेश प्रत्यक्ष क्यों कहा है यह अब अगले तीन श्लोकों में स्पष्ट करते हैं -