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________________ प्रथम खण्ड / तृतीय पुस्तक उक्त प्रमाणदर्शनमस्ति स योऽयं हि नस्तिमानार्थः । भवतीदमुदाहरणं न कथञ्चिद्वै प्रमाणतोऽन्यत्र ॥ ६९२ ॥ - अर्थ प्रमाण का दृष्टान्त इस प्रकार कहा गया है कि 'जो पदार्थ अस्ति रूप है वही पदार्थ यह नास्ति रूप है' देखिये तीसरे भंग में स्वरूप से अस्ति और पर रूप से नास्ति क्रम से कहा गया था यहाँ प्रमाण में दोनों धर्मो का प्रतिपादन समकाल में किया है। ) "जो अस्ति रूप है वही नास्ति रूप है" यह उदाहरण प्रमाण को छोड़कर अन्यत्र किसी नय में किसी प्रकार भी घटित नहीं होता है अर्थात् नयों द्वारा ऐसा विवेचन नहीं किया जा सकता है। अब नयों से युगपत ऐसा विवेचन क्यों नहीं किया जा सकता है उसी को स्पष्ट करते हैं 4 तदभिज्ञानं हि यथा वक्तुमशक्यात् समं नयस्य यतः । अधि तुर्यो नयभंगस्तत्वावक्तव्यतां श्रितस्तस्मात् ॥ ६९३ ॥ अर्थ - इसका खुलासा (कारण) यह है कि नय एक साथ दो विरुद्ध धर्मों का प्रतिपादन करने में असमर्थ है। इसलिये एक साथ दो धर्मों के कहने की विवक्षा में ' अवक्तव्य' नामक चौथा भंग होता है (यह भंग भी एक अशांत्मक है। जो नहीं बोला जा सके उसे अवक्तव्य कहते हैं। एक समय में एक ही धर्म का विवेचन हो सकता है, दो का नहीं)। न पुनर्वक्तुमशक्यं युगपद्धर्मद्वयं १९१ प्रमाणस्य । क्रमवर्ती केवलमिह नयः प्रमाणं न तद्वदिह यस्मात् ॥ ६९४ ॥ अर्थ - किन्तु प्रमाण एक साथ विरुद्ध दो धर्मों का कथन करने में असमर्थ नहीं है क्योंकि क्रमवर्ती केवल नय है । नय के समान प्रमाण क्रमवर्ती नहीं है (अर्थात् प्रमाण चतुर्थ नय के समान अवक्तव्य भी नहीं है और तृतीय नय के समान वह क्रम से भी दो धर्मो का प्रतिपादन नहीं करता है किन्तु दोनों ही प्रकिरता है। इसलिये नय से प्रमाण भिन्न ही है ) । का उपसंहार यत्किल पुनः प्रमाणं वक्तुमलं वस्तुजातमिह यावत् । सदसदनेकैकमथो जित्यानित्यादिकं च युगपदिति ॥ ६९५ ॥ अर्थ -- तथा जो प्रमाण है वह सत्-असत् ( अस्ति नास्ति ), एक-अनेक, नित्य- अनित्य, तत् - अतत् ( भावअभाव), वस्तु के सम्पूर्ण धर्मों को एक साथ कहने में समर्थ हैं। • शंका समाधान का सार शंकाकार ने श्लोक ६८३ से ६८६ में जो शंका की थी उसके उत्तर में ग्रन्थकार ने अस्ति, नास्ति, अस्ति नास्ति, अवक्तव्य चारों नयों का विषय समझाया तथा उनसे भिन्न प्रमाण का विषय समझाया। सार यह है कि नय वस्तु के धर्मों को क्रम से विरुद्ध रूप से ग्रहण करने के कारण एक-एक भंग ही है और प्रमाण उन सब धर्मों को अविरुद्ध रूप से एक समय में ग्रहण करने वाला भिन्न जाति का ज्ञान है। यह दोनों में बड़ा भारी अन्तर है। अस्ति, नास्ति आदि भंगों से वस्तु के एक-एक अंश का ज्ञान होता है। प्रमाण से सम्पूर्ण वस्तु का ज्ञान होता है। नोट- यहाँ तक प्रमाण का स्वरूप कह कर अब उसके भेदों पर विचार करते हैं : आठवाँ अवान्तर अधिकार प्रमाण के भेदों का निरूपण ( ६९६ से ७१९ तक ) अथ तद्विधा प्रमाणं ज्ञानं प्रत्यक्षमथ परोक्षं च । असहाय प्रत्यक्षं भवति परोक्षं सहायसापेक्षम् ॥ ६९६ ॥ - अर्थ • प्रमाण रूप ज्ञान के दो भेद हैं ( १ ) प्रत्यक्ष ( २ ) परोक्ष। जो ज्ञान किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं रखता वह प्रत्यक्ष है। जो ज्ञान दूसरों की सहायता की अपेक्षा रखता है वह परोक्ष है। सहाय का अर्थ निमित्त मात्र है। सहाय असर प्रभाव, बलाधान, प्रेरक कर्त्ता आदि शब्दों का अर्थ जैनधर्म में निमित्तमात्र होता है देखिये इष्टोपदेश श्लोक ३५ तथा तत्वार्थसार तीसरा अजीव अधिकार श्लोक नम्बर ४३ | -
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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