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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
को इकट्ठा ही मानता है और इकट्ठा ही कहता है और आप कहते हैं कि दोनों धर्म अवक्तव्य हैं इसलिये अवक्तव्यमय नय बना है तो जब प्रमाण में दोनों धर्मों को एक साथ कह ही नहीं सकते तो प्रमाण का अस्तित्व ही नहीं रहता है। फिर उसको सिद्ध ही कैसे करोगे?
शंका इदमपि वस्तुमयुक्तं वक्ता नय एव न प्रमाणमिह ।
मूलविनाशाय यतोऽवक्तरि किल चेटवाच्यता दोषः ॥ ६८६ ॥ अर्थ - यदि उसके उत्तर में यह कहा जाय कि बोलने वाला नय ही होता है प्रमाण नहीं तो ऐसा कथन भी मूल का विघात करने वाला है क्योंकि प्रमाण को अवक्तव्य (नहीं बोलने वाला) मान लेने पर अवाच्यता का दोष आता है (जब प्रमाण अवक्तव्य है तो उसके अंश नय भी सब अवक्तव्य हुये फिर तो कुछ कथन ही न हो सकेगा)?
समाधान ६८७ से ६९५ तक नैवं यतः प्रमाणं भंगध्वंसावभंगबोधनपु ।
भङ्गात्मको नय यावानिह सदशंधर्मत्वात् ॥ ६८७॥ अर्थ - यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि प्रमाण भंगों के नाश से अभंगज्ञानमय है (प्रमाण ज्ञान भंगमय नहीं होता है। अभंग ज्ञानमय होता है ) हाँ जितना भी नय है वे अवश्य भंगात्मक ही होते हैं क्योंकि वे उस प्रमाण के अंश हैं।
स यथास्ति च नास्तीति च क्रमेण युगपच्च वाजयोर्भगः ।
अधि वाsaवत्तव्यमिदं नयो चिकल्पानतिक्रमादेव ॥ ६८८ ॥ अर्थ - खुलासा इस प्रकार है - एक 'अस्ति' भंग, और एक नास्ति भंग। एक इन दोनों के स्वरूप को कम से बताने वाला किन्तु उच्चारण एक साथ किया गया संयोग रूप'अस्तिनास्ति',भंग. एक दोनों धर्मों को यगपत कहने वाला'अबक्तव्य' भंग-भंग ही हैं। ये सभी भंग नय रूप हैं क्योंकि इन सब भंगों में एक-एक विकल्प का उल्लङ्गन नहीं है।
तनास्ति च नारित समं भङ्गस्यास्यैकधर्मता नियमात् ।
न पुजः प्रमाणमिव किल विरुद्धधर्मद्वयाधिरूढ़त्तम् ॥ ६८९॥ अर्थ – उन भंगों में 'अस्ति-नास्ति' एक साश्च बोले हुये इस एक भंग के नियम से एक धर्मता है। वह प्रमाण के समान नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रमाण एक ही समय में दो विरुद्ध धर्मों को मैत्रीभाव से ग्रहण करता है ( उस प्रकार यह भंग विरुद्ध दो धर्मों का मैत्रीभाव से ग्रहण नहीं करता है किन्तु पहले दूसरे भंग की मिली हुई तीसरी ही अबस्था का प्रतिपादन क्रम से करता है। इसलिए वह ज्ञान भी अंशरूप ही है प्रमाण रूप नहीं है।
अयमर्थश्चार्थवशादथ च विवक्षावशात्तर्दशत्चम ।
यापदिदं कथ्यमान क्रमाज्ज्ञेयं तथापि तत्स यथा ॥ ६९० ।। अर्थ - ऊपर कहे हुए कथन का यह आशय है कि प्रयोजनवश अथवा विवक्षावश युगपत बोला हुआ भी यह भंग (स्वरूप का ग्राहक)क्रम से ही जानना चाहिए वह इस प्रकार ('अस्ति-नास्ति' यह शब्द एक साथ बोला जाता है पर स्वरूप इसमें क्रम से ही कहा गया है वही अब दिखलाते हैं)
अस्ति स्वरूपसिद्धेर्नास्ति च पररूपसियभावाच्च ।
अपरस्योअयरूपादितरसतः कथितमरित नारत्तीति ||६९१॥ अर्थ – वस्तु निजरूप के सद्भाव की अपेक्षा से 'अस्ति है यह पहला भंग है। वस्तु पररूप के सद्भाव के अभाव की अपेक्षा से 'नास्ति' है यह दूसरा भंग है। तीसरे भंग की अपेक्षा से क्रम से वस्त स्वरूप से है और पर रूप से नहीं है अर्थात् वस्तु क्रम से दोनों रूप से है। इसलिये यह शब्द कम से 'अस्ति-नास्ति' रूप कहा गया है।
भावार्थ - अर्थात्। १) स्यात् अस्ति (२) स्यात्नास्ति (३) स्यात् अस्ति-नास्ति ये तीन भंग स्वरूप, पररूप, कम से स्वरूप पररूप की अपेक्षा से जानने चाहिये। प्रमाण का स्वरूप इन भंगों से जदा ही है।