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प्रथम खण्ड/ तृतीय पुस्तक
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चाहिए। तथा पदार्थ का नित्यांश उसके अनेत्यांश का विरोधी है, उसी प्रकार अनित्यांश उसके नित्यांश का विरोधी है, परन्तु दोनों मिलकर ही पदार्थ स्वरूप के साधक हैं। इसका कारण यही है कि प्रत्येक पक्ष का स्वतन्त्र ज्ञान द्वितीय पक्ष का विरोधी है परन्तु उभय पक्ष का समुदायात्मक ज्ञान परस्पर विरुद्ध दीखता हुआ भी अविरुद्ध है। अतः नय ज्ञान और प्रमाण ज्ञान भिन्न-भिन्न जाति के ज्ञान है।
अगली भूमिका - वस्तु सामान्य स्वरूप से है यह एक अस्ति भंग है। वस्तु विशेष रूप से नहीं है यह एक नास्ति भंग है और जब दोनों स्वरूप को वक्ता को क्रम से कहना होता है तो तीसरा भंग 'अस्ति नास्ति' प्रयोग करते हैं। ध्यान रखिये यह अस्तिनास्ति शब्द तो एक साथ बोला जाता है पर सूचक दोनों स्वभावों का क्रमशः है और जब वक्ता को दोनों धर्मों को युगपत कहना होता है तो दोनों धर्म एक साथ कहे नहीं जा सकते अतः अवक्तव्य शब्द का प्रयोग करना पड़ता है। यह चौथा नय है। ये चारों भंग वस्तु के एक-एक अंश को कहते हैं। सारी वस्तु को नहीं कह सकते । प्रमाण सारी वस्तु को जोड़ रूप से कहता है जैसे जो स्वरूप से अस्ति है वही पररूप से नास्ति है। प्रमाण दोनों विरोधी धर्मों को युगपत् ग्रहण भी करता है, कहता भी है और एक वस्तु में अविरोध पूर्वक स्थापना भी करता है। इस प्रकार इन चारों भंगों में और प्रमाण में अन्तर है। शंकाकार इस अन्तर को न समझता हुआ गुरु से इनका अन्तर जानना चाहता है। वह पूछता है कि यह नियम है कि नय तो वस्तु के एक धर्म को ही कहता है और प्रमाण दोनों धर्मों को कहता है । फिर यह अस्ति नास्ति भंग नय कहाँ रहा ? यह तो प्रमाण होना चाहिये । यदि यह नय है तो इसमें एक अंगता सिद्ध करें। यदि यह दोनों धर्मों को कहने वाला है तो फिर यही प्रमाण हो गया। प्रमाण इससे भिन्न क्या वस्तु है अर्थात् फिर इसमें और प्रमाण में क्या अन्तर है। यदि यह दोनों स्वरूपों को क्रमशः कहता है तो क्रमशः तो पहला अस्ति भंग और दूसरा नास्ति भंग कहते ही हैं। उनके अतिरिक्त इसमें और क्या विशेषता आई तथा यदि वह अस्ति नास्ति भंग दोनों धर्मों को क्रमशः कहने के कारण प्रमाण ज्ञान नहीं है तो चौथा अवक्तव्य भंग तो दोनों धर्मों को इकट्ठा कहता है वह प्रमाण हो गया। उसमें और प्रमाण में क्या अन्तर रहा। इस प्रकार शंकाकार अगली शंकाओं में चारों नयों के स्वरूप को, प्रमाण के स्वरूप को तथा उनके अन्तर को जानना चाहता है।
शंका ६८३ से ६८६ तक
ननु युगपदुच्यमानं लययुग्मं तद्यथारित नास्तीति ।
एको भंगः, कथमयमेकांशग्राहको नयो नान्यत् ? ॥ ६८३ ॥ शंका- जहाँ दो नय एक साथ बोले जाते हैं जैसे 'अस्ति नास्ति' ये अस्ति नास्ति शब्द दोनों नय के विषय को एक साथ सूचित करता है। फिर यह एक भंग एक अंश का ग्रहण करने वाला नय कैसे कहा जा सकता है (क्योंकि इसमें अस्ति नास्ति ऐसे दो अंश आ चुके हैं ) ? इसे प्रमाण क्यों नहीं कहा जाता ?
शंका चालू
अपि चास्ति न चारित सममेकोक्त्या प्रमाणनाशः स्यात् । अथ च क्रमेण यदि वा स्वस्य रिपुः स्वयमहो स्वनाशाय ॥ ६८४ ॥
अर्थ - दूसरी बात यह भी है कि 'अस्ति और नास्ति' यह एक साथ कहे जाते हैं तो फिर प्रमाण का नाश ही हो जायेगा ( कारण अस्ति नास्ति को एक साथ कहने वाला एक भंग ही है, उसी से कार्य चल जाता है, फिर प्रमाण का लोप ही समझना चाहिये अथवा यह कहा जाये कि अस्ति नास्ति भंग तो स्वरूप को क्रम से कहता है इसलिये यह नय है प्रमाण नहीं तो यह कहना अपने नाश के लिये स्वयं अपना शत्रु है ( कारण क्रम से तो आप पहले एक अस्ति भंग जुदा कह आये हैं और एक नास्ति भंग भी जुदा कह आये हैं। यह अस्ति नास्ति कम से कहने पर तो कोई नई बात नहीं बनती) या उन दोनों नयों को मान लो या इस एक को मान लो ।
शंका चालू
अथवा वक्तव्यमयो वक्तुमशक्यात्समं स चेद्भगः । पूर्वापरखाधायाः कुतः प्रमाणात्प्रमाणमिह सिद्धयेत् ॥ ६८५ ॥
अर्थ अथवा यदि यह कहा जाय कि दोनों धर्म एक साथ नहीं कहे जा सकते इसलिये अवक्तव्यमय भंग है तो ऐसा मानने में पूर्वापर बाधा है। फिर किस प्रमाण से प्रमाण की सिद्धि हो सकती है ? अर्थात् प्रमाण तो दोनों धर्मों