SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी ज्ञानविशेषो नय इति ज्ञानविशेषः प्रमाणमिति नियमात् । उभयोरन्त.दो विषयविशेषान्न वस्तुतो भेटः ॥ ६७९॥ अर्थ - नियम से नय भी ज्ञान विशेष है। प्रमाण भी ज्ञान विशेष है। दोनों में विषय विशेष की अपेक्षा से ही भेद है। जानने योग्य वस्तु में भेद नहीं है। (अर्थात् जिस वस्तु को नय जानता है उसी वस्तु को प्रमाण जानता है। उस वस्तु के एक अंश को नय जानता है, सम्पूर्ण वस्तु को प्रमाण जानता है यह अन्तर है। स यथा विषयविशेषो, द्रव्यैकांशो नयस्य, योऽन्यतमः । सोऽप्यपरस्तदपर इह निरिवलं विषयः प्रमाणजातस्य ॥ ६८०।। अर्थ- प्रमाण और नय में विषय भेद इस प्रकार है:- द्रव्य के अनन्त अंशों में से कोई सा विवक्षित अंश नय का विषय है। वह अंश, उससे दूसरा अंश, उससे भी दूसरा अंश, उससे भी दूसरा अंश, अर्थात् सब अंश अथवा अनन्त गुणात्मक समस्त ही वस्तु प्रमाण का विषय है। यदजेकजयसमहे संवाहकरणादनेकधर्मत्वम । तत्सदपि न सदिव यतस्तदनेकत्वं विरुद्धधर्ममयम् ॥ ६८१॥ भूमिका-शंकाकार ने श्लोक ६७४ में कहा था कि जब वस्तु के एक-एक अंश को विषय करने वाला नय है तो अनेक नयों का समूह होने पर उससे ही अनेकधर्मता प्रमाण में आ जायेगी अर्थात् प्रमाण स्वतन्त्र कोई ज्ञान विशेष न माना जाय। अनेक नयों के सामूहिक ज्ञान को ही प्रमाण कहा जाय तो क्या हानि है? आचार्य उत्तर देते हैं कि यह आशंका ठीक नहीं है क्योंकि : अर्थ - जो अनेक नयों के समूह में संग्रह करने से अनेकधर्मपना प्राप्त होता है वह सम्पूर्ण सत् होता हुआ भी अखण्ड सत् नहीं है क्योंकि वह अनेकता विरुद्ध धर्ममय होगी [ कारण नय सभी एक-दूसरे से प्रतिपक्ष धर्मों को ग्रहण करते हैं किन्तु सत् तो सब धर्मों का मैत्री रूप से अखण्ड पिण्ड है। प्रमाण ही उन अनेक धर्मों को अविरुद्ध रूप से ग्रहण करता है। अतः वह भिन्न जाति का ज्ञान ही है॥ सोई कहते हैं-] यटनेकांशग्राहकमिह प्रमाण न प्रत्यनीकतया । प्रत्युलमैत्रीभावादिति नयभेदाददः प्रभिन्न स्यात् ॥ ६८२॥ अर्थ-किन्तु प्रमाण जो अनेक अंशों का ग्रहण करता है सो वह विरुद्धरीति से नहीं करता है किन्तपरस्पर मैत्रीभाव पूर्वक ही उन धर्मों को ग्रहण करता है। इसलिये नय भेद से (नय ज्ञान से ) यह प्रमाण भेद (प्रमाण ज्ञान)भिन ही है। प्रमाण ज्ञान और नय ज्ञान में अन्तर My प्रमाण ज्ञान और नय ज्ञान में इस प्रकार अन्तर है (१) प्रमाण वस्तु के सब धर्मों का ग्राहक है - नय वस्तु के एक धर्म का ग्राहक है। (२) प्रमाण का विषय समस्त वस्तु है - नय का विषय वस्तु का एक अंश है (३) प्रमाण का उदाहरण देशादियुक्त अखण्ड पृथ्वी है - नय का दृष्टान्त उसका एक देश है।(४) प्रमाण का हेतु सम्पूर्ण वस्तु के जानने की इच्छा है - नय का हेतु एक अंश के जानने की इच्छा है।(५) प्रमाण का फल समस्त वस्तु बोध है - नय का फल वस्तु का एक देश बोध है।(६)प्रमाण नय शब्द भी जुदा-जुदा हैं।(७) प्रमाण के प्रत्यक्ष परोक्षभेद-प्रभेद हैं - नय के द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक भेद-प्रभेद हैं। (८) प्रमाण सब धर्मों को परस्पर मैत्री भाव से - अविरुद्धपने से युगपत ग्रहण करता है। नय सब धर्मों को परस्पर विरुद्धपने से क्रमश: ग्रहण करता है। इसलिये प्रमाण और नय दोनों ज्ञान जुदा-जुदा हैं। उनमें से किसी एक का लोप करना सर्व लोप के प्रसंग का हेतु है। नय के अभाव में प्रमाण व्यवस्था नहीं बन सकती और प्रमाण के अभाव में नय व्यवस्था भी नहीं बन सकती। प्रत्येक नय एक-एक धर्म को विरुद्ध रीति से ग्रहण करता है परन्तु प्रमाण वस्तु के सर्वाशों को अविरुद्धता से ग्रहण करता है। इसका कारण यह है कि प्रमाण सब अंशों को विषय करने वाला एकाकी ज्ञान है। भिन्न-भिन्न ज्ञान ही प्रत्येक अंश को विवक्षता से ग्रहण कर सकते हैं। जैसे एक ज्ञान रूप को ही जानता है। दूसरा रस को ही जानता है। तीसरा गंध को ही जानता है। चौथा स्पर्श कोही जानता है। ये चारों ही ज्ञान परस्पर विरुद्ध है क्योंकि विरुद्ध विषयों को विषय करते हैं परन्त रूप, रस, गंध, स्पर्श, चारों का समुदायात्मक जो एकज्ञान होगा वह अविरुद्ध ही होगा।यही दृष्टान्त प्रमाण नय में सुघटित कर लेना
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy