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________________ १८५ प्रथम खण्ड / तृतीय पुस्तक होता है अर्थात् सामान्य या विशेष किसी एक अंश को विषय करने वाला ज्ञान होता है तब वह नयाधीन (नयात्मक ) ज्ञान कहलाता है । और जब वह ज्ञान उभय विकल्पात्मक (सामान्यविशेषात्मक ) होता है अर्थात् पदार्थ के दोनों अंशों को विषय करता है तब वह प्रमाण रूप ज्ञान कहलाता है। भावार्थ - मिथ्याज्ञान में स्व पर का व्यवसाय ( निश्चय ) नहीं होता, अतः मिथ्याज्ञानों को प्रमाण नहीं कहते केवल सम्यग्ज्ञानियों के ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। वे ज्ञान पांच हैं। नय ये श्रुतज्ञान का भेद है। इसलिये वह श्रुतज्ञान में ही गर्भित हो सकता है पर मति, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान में तो वह गर्भित नहीं हो सकता। मतिज्ञानादि चार ज्ञान स्वार्थं होते हैं और श्रुतज्ञान स्वार्थं तथा परार्थ दोनों प्रकार का होता है। ज्ञानात्मक को स्वार्थ तथा वचनात्मक को परार्थ कहते हैं। नय पराधंश्रुतज्ञान के भेद में गर्भित होता है अर्थात् जो परार्थ श्रुत ज्ञान एक देश को विषय करने वाला हुआ तो उसको नय ज्ञान कहते हैं तथा जो वह परार्थं श्रुत ज्ञान सर्वदेश को विषय करने वाला हुआ तो उसको प्रमाण ज्ञान कहते हैं। अब इसी को शंका समाधानों द्वारा पीसते हैं। शंका (६६७ से ६६९ तक ) ननु चास्त्येकविकल्पोऽप्यविरूद्धोभयविकल्प एवास्ति । कथमिव तदेकसमये विरुद्धभावद्वयोर्विकल्पः स्यात् ॥ ६६७ ॥ शंका- एक विकल्प भी हो सकता है और अविरुद्ध दो धर्मवाला भी एक विकल्प हो सकता है अर्थात् अविरोधी दो धर्म तो एक साथ रह सकते हैं। उनका तो विकल्प भी हो सकता है। परन्तु एक समय में परस्पर विरुद्ध विधि निषेध रूप दो भावों का विकल्प किस प्रकार हो सकता है ? नहीं हो सकता जैसे सत् नित्य- अनित्य हैं ये तो परस्पर विरोधी हैं। ये दोनों बात एक साथ कैसे बन सकती है ? शंका चालू अथ चेदरित, विकल्पो क्रमेण युगपद्वा बलादुवाच्यः । अथ चेत् क्रमेण जय इति भवति न नियमात्प्रमाणमिति दोषः ॥ ६६८ || अर्थ - यदि कहो कि एक साथ विरुद्ध दो भावों का विकल्प हो सकता है तो हम पूछते हैं कि वह क्रम से हो सकता है या एक साथ ऐसा यहाँ आपको बताना होगा ? यदि कहा जाय कि विरोधी दो धर्म क्रम से हो सकते हैं तो वह क्रम से होने वाला तो अस्ति नास्ति नामा नय ही कहा जायेगा, प्रमाण वह नियम से नहीं कहा जा सकता। यह दोष है। शंका चालू युगपच्चेदथ न मिथो विरोधिनोर्योगपद्यं स्यात् । दृष्टिविरुद्धत्वादपि प्रकाशतमसोर्द्वयोरिति चेत् ॥ ६६९ ॥ अर्थ- यदि कहा जाय कि वे दोनों धर्म एक साथ हो सकते हैं तो यह बात बनती नहीं है कारण विरोधी धर्म एक साथ दो नहीं रह सकते। दो विरोधी धर्म एक साथ रहें इस विषय में प्रत्यक्ष प्रमाण से विरोध आता है। जैसे प्रकाश और अंधकार दोनों ही विरोधी हैं। वे क्या एक साथ रहते हुये कभी किसी ने देखे हैं ? शंकाकार का आशय हम दूसरी पुस्तक में आपको यह बता चुके हैं कि सत् परस्पर दो विरोधी धर्मों वाले चार युगलों से गुँधा हुआ है और उनमें से प्रत्येक धर्म को कहने वाला एक-एक नय है और अविरुद्ध रीति से दोनों धर्म रूप वस्तु को बताने वाला प्रमाण है। यहाँ प्रमाण के स्वरूप का प्रकरण है। प्रमाण का कहना है कि जो नित्य है वहीं अनित्य है। अब शंकाकार कहता है कि सत् नित्य है यह एक विकल्प तो ठीक या सत् अनित्य है यह एक विकल्प भी ठीक क्योंकि ये दोनों परस्पर विरोधी हैं एक जगह तो नहीं रह सकते, हाँ, अलग-अलग रह सकते हैं। दूसरी बात वह कहता है कि जो अविरुद्ध दो धर्म हों वे भी एक जगह रह जाते हैं जैसे पानी मीठा भी है द्रवत्व भी है। पर जो परस्पर विरोधी धर्म हैं वे एक जगह कैसे रहेंगे? जैसे पानी ठंडा है यह एक विकल्प ठीक है। कोई कहता है पानी गरम है यह भी एक विकल्प ठीक है। कोई कहता है पानी मीठा भी है द्रवत्व भी है, यह भी ठीक है। पर कोई यह कहे कि पानी ठंडा भी है गरम भी है यह
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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