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________________ १८६ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी कैसे हो सकता है ? ये तो दोनों विरोधी हैं। दोनों में से एक ही रहेगा। कहीं अन्धकार है सो ठीक है, कहीं प्रकाश है सो ठीक है। पर एक ही जगह अंधकार और प्रकाश परस्पर विरोधी कैसे रह सकते हैं ? इस प्रकार सत् नित्य-अनित्य है, एक-अनेक है, तत- अतत् है, भेदाभेद है, ये चारों बातें तो परस्पर विरोधी हैं। ये कैसे बन सकती हैं ? ऐसा शंकरकार पूछता है ? समाधान (६७० से ६७३ तक ) न यतो युक्तिविशेषाद्युगपद्द्वृत्तिर्विरोधिनामस्ति । सदसदनेकेषामिह भावाभावधुवाधुवाणां ॥ ६७० ॥ अर्थ ऊपर की हुईं शंका ठीक नहीं है। कारण कि युक्ति विशेष से विरोधी धर्मों की भी एक साथ वृत्ति रह सकती है। सत्-असत् ( अस्ति नास्ति ) एक अनेक, भाव-अभाव ( तत्- अतत् ), नित्य-अनित्य धर्मों की एक पदार्थ में एक साथ वृत्ति रहती है। अयमथ जीवादौ प्रकृतपरामर्शपूर्वकं ज्ञानम् । यदि वा सदभिज्ञानं यथा हि सोऽयं बलाद् द्वयामर्शि ॥ ६७१ ॥ अर्थ - ऊपर जो कुछ कहा गया है उसका यह अर्थ है कि जीवादिक पदार्थों में उपर्युक्त चार युगलों के विचार पूर्वक (परस्पर अनुसंधान पूर्वक ) जो ज्ञान है वह प्रमाण ज्ञान है। अथवा जैसे पदार्थ में जो प्रत्यभिज्ञान है वह बलपूर्वक सामान्य विशेष दोनों को ग्रहण करने वाला है। जरण ज्ञान है। जैसे "यह वही है" इस प्रकार का ज्ञान एक वस्तु की सामान्य विशेष दोनों अवस्थाओं को ठीक एक समय में ग्रहण करता है। सोऽयं जीवविशेषो यः सामान्येन सदिति वस्तुमयः । संस्कारस्य वशादिह सामान्यविशेषजं भवेज्ज्ञानम् ॥ ६७२ ॥ अर्थ यह वही जीव विशेष है जो सामान्यता से सत् मात्र वस्तुरूप है। इस प्रकार संस्कार के वश से सामान्यविशेषात्मक ज्ञान 'जाता है। अस्त्युपयोगि ज्ञानं सामान्य विशेषयोः समं सम्यक् । आदर्श स्थानीयात् तस्य प्रतिबिम्बमात्रतोऽन्यस्य ॥ ६७३ ॥ अर्थ • सामान्य विशेष को एक साथ विषय करने वाला उपयोगात्मक ज्ञान भले प्रकार हो सकता है क्योंकि सामान्य दर्पण के समान है तथा विशेष प्रतिबिम्ब समान है। जिस प्रकार दर्पण और प्रतिबिम्ब इकट्टे रहते हैं उसी प्रकार सामान्य विशेष मैत्रीपूर्वक इकट्ठे रहते हैं और जिस प्रकार दर्पण और दर्पण में रहने वाला प्रतिबिम्ब एक साथ जाना जाता है उसी प्रकार सामान्य विशेष एक साथ जाना जाता है। समाधान का सार समाधान में शिष्य को यह समझाते हैं कि भाई वस्तु स्वभाव में किसी का वश नहीं (१) सत् जैसे स्वभाव से स्वतः सिद्ध है वैसे ही वह स्वतः परिणमनशील भी है। स्वभाव के कारण उसमें नित्य धर्म है और परिणमन स्वभाव के कारण उसमें अनित्य धर्म है। मोटी दृष्टि से देखने पर विरोध दीखता है पर वास्तव में विरोध नहीं है। पदार्थ उभयात्मक है (२) उसी प्रकार प्रदेशों की अपेक्षा अखण्ड निरंशदेश है किन्तु गुण पर्यायादि लक्षण भेद से भिन्न-भिन्न है अतः अनेक भी है (३) उसी प्रकार स्वभाव से वही का वही रहता है और परिणाम स्वभाव से दूसरा ही दीखता है इस प्रकार तत्-अतत् दोनों विरोधी धर्म एक साथ रहते हैं। ( ४ ) सामान्य दृष्टि से वह प्रत्येक द्रव्य सत् रूप दीखता है और विशेष दृष्टि से वही जीवादि रूप दीखता है। यद्यपि चारों युगल बोलने में विरोधी से हैं पर भाई तू ही अपने अनुभव से देख ! तुझे तू सत् रूप भी अनुभव में आयेगा और जीव रूप भी, वस्तु रूप भी अनुभव में आयेगा, परिणाम रूप भी वही का वही भी अनुभव में आयेगा दूसरा भी। अखण्ड एक रूप भी अनुभव में आयेगा, गुण भेद रूप भी। ये जो परस्पर उभयात्मक वस्तु है यह वस्तु ही कुछ ऐसी है और ऐसा ही प्रमाण से उसका ठीक-ठीक ज्ञान हो जाता है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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