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प्रथम खण्ड / तृतीय पुस्तक
१८३
राग क्या है किस नय का विषय है तो समझे कि यह आत्मा का भाव है। आत्मा के चतुष्टय में है। इसलिये इस पर दय लागू हो सकती है। नयभास नहीं तथा क्योंकि वह मितिमा है क है- क्षणिक है अतः व्यवहार नय लागू होगी। जब ऐसा समझेगा तो यह समझ लेगा कि यह भाव पुरुषार्थं द्वारा आत्मा से निकालकर आत्मा शुद्ध किया जाता है और सामान्य शुद्ध आत्मा जो निश्चय का विषय है वह शेष रह जायेगा। इस प्रकार दोनों नयों का ज्ञान परस्पर सापेक्ष आत्मशुद्धि के लिये सफल हो सकता है। किन्तु यदि स्ववस्तु के सब चतुष्टय को निश्चय समझे और परवस्तु के कथनों को सद्व्यवहार समझे। एक वस्तु का दूसरी में कर्तृत्वपना यही परस्पर सापेक्षता समझे तो वह नय ज्ञान नयाभास रूप में परिणत होकर दो द्रव्यों की चली आई एकत्वबुद्धि के दृढ़ अध्यास को ही सिद्ध करेगा और मिथ्यात्व की पुष्टि में कारण होगा। अतः ग्रन्थकार ने इस श्लोक द्वारा मुमुक्षु को चेतावनी दी है कि वह बहुत जागृत होकर नयों का प्रयोग करे। पुरुषार्थसिद्धि-उपाय में कहा है कि इस नय रूपी गहन बन को समझने के लिये गुरु ही शरण है। अन्यथा जिस प्रकार बनी में जीव खोया जाता है इस प्रकार नय का दुरुपयोग होने से उल्टा आत्मअहित हो जाता है।
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अगली भूमिका पिछले श्लोक में ज्ञान की अपेक्षा उपदेश दिया था। अब श्रद्धा की अपेक्षा उपदेश देते हैं कि ज्ञान से दोनों नयों के विषय को जानकर व्यवहार के विषय को हैय करना चाहिये और निश्चय के विषय को उपादेय करना चाहिये क्योंकि निश्चय का विषय सामान्यमात्र वस्तु है। उसके अवलम्बन से ही निर्विकल्प होकर आत्मसिद्धि होगी।
निश्चय नय की सफलता
'अधि निश्चयस्य नियतं हेतुः सामान्यमात्रमिह वस्तु ।
फलमात्मसिद्धिः स्यात् कर्मकलङ्कावमुक्तबोधात्मा ॥ ६६३ ॥
अर्थ - निश्चय नय का कारण नियम से सामान्यमात्र वस्तु है और सब कर्म कलंक से रहित ज्ञानमय आत्मा की सिद्धि होना यह निश्चय नय का फल है ।
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प्रमाण - जीवों को यह शंका हो सकती है कि सब ग्रन्थों में तो परवस्तु पर व्यवहारनय और स्वचतुष्टय पर निश्चय नय लगाया है। पंचाध्यायीकार अपनी अलग की डुगडुगी बजाता है। इसी कारण बहुत से लोग इसे आगम प्रमाण न मानकर अप्रमाणिक ग्रन्थ कहते हैं पर यह उनकी बुद्धि का दोष है। कठिन और सूक्ष्म होने के कारण तथा गुरुराम न मिलने के कारण वे इसके रहस्य को नहीं समझ सके। इस ग्रन्थ का एक अक्षर भी अप्रमाणिक नहीं है। सबका सब श्री कुन्दकुन्द तथा श्री अमृतचन्द्रजी के अक्षरशः वक्तव्यानुसार है। देखिये परवस्तु पर लगाने वाले व्यवहार नय नहीं किन्तु नयाभास हैं इसका निरूपण स्वयं श्री समयसारजी में इसी पद्धति से है। गाथा ८४ में शिष्य ने दो द्रव्यों पर व्यवहार नय लगाया है। गुरुजी ने गाथा ८५-८६ में उसका खंडन किया है। उसी प्रकार गाथा १८ में शिष्य ने फिर दो द्रव्यों पर व्यवहार नय लगाया है। उसका खण्डन गुरु महाराज ने ९९ से १०८ तक किया है। ज्यों का त्यों वही भाव श्रीपञ्चाध्यायीकार ने यहाँ केवल कथन शैली बदलकर लिखा है । ( २ ) अब यह जो आपका कहना है कि निश्चय का ऐसा कथन कहीं देखने में नहीं आया या निश्चय नय का 'नेति' लक्षण कहीं देखने में नहीं आया। श्रीसमयसारजी गाथा २७२ मूल में स्पष्ट "नेति" लक्षण लिखा है तथा २७५ की टीका के अन्तिम वाक्य में स्पष्ट लिखा है तथा २७६-७७ के शीर्षक पर स्पष्ट लिखा है। वही शब्द और वही भाव ज्यों का त्यों श्रीपंचाध्यायीकार ने लिया है, केवल अधिक स्पष्टता के कारण कथन शैली बदली है। श्रीसमयसारजी गाथा ६ में प्रमत्त- अप्रमत्त का निषेध "नेति" 'नहीं तो और क्या है ? तथा गाथा ७ में स्वाभाविक गुणपर्यायों के भेद का निषेध "नेति" लक्षण नहीं तो और क्या है ? इस प्रकार यह निश्चयनय सब श्रीसमयसार मूल आगम की देन है। ( ३ ) राग आत्मा के चतुष्टय में है इसे निश्चय कहना चाहिये - व्यवहार नहीं। इस शंका का उत्तर श्री कुन्दकुन्द भगवान ने श्रीसमयसार गाथा ५० से ५५ तक सब २९ भावों को आत्मा में कूड़ा-कर्कट बताकर आत्ममहल से बाहर फेंका है। इस प्रकरण में स्पष्ट राग को व्यवहार कहा है। मूल द्रव्य में न पाये जाने वाली चीज को निश्चय कैसे कहा जा सकता है ? वह तो व्यवहार ही है। ( ४ ) अरे राग तो राग हम तो क्षायिक भाव तक को व्यवहार कहते हैं तू तो राग से ही डर गया है। श्री नियमसार गा. ४१ और उसकी टीका में चारों भावों को व्यवहार कहकर आत्मा में निषेध किया है। श्रीसमयसार तथा नियमसारजी तो केवल त्रिकाली सामान्य को जो स्वतः सिद्ध वस्तु है उसी को निश्चय कहते हैं। औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक