________________
प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक
१८१
भावार्थ- जिस प्रकार भिन्न-भिन्न एक-एक अंशको ग्रहण करने वाली होने से व्यवहार नय अनेक हैं उसी प्रकार भिन्न २ व्यवहार का निषेध करने से निश्चय नय भी अनेक होने चाहिये। इसलिये निश्चय नय का पूर्व न.५९८ के अनुसार एक मानना ठीक नहीं है।
समाधान ६५७ से ६६१ तक जैवं यतोऽस्त्यनेको नैक: प्रथमोऽप्यनन्तधर्मत्वात् ।
न तथेति लक्षणत्वादरत्येको निश्चयो हि जानेकः ॥९५७। __ अर्थ - ऐसा नहीं है कारण कि पहली व्यवहार नय तो अनन्त धर्मों को एक-एक करके ग्रहण करने वाली होने से अनेक है, वह तो जरूर एक नहीं है परन्तु निश्चय नय एक है, अनेक नहीं है क्योंकि उसका लक्षण "न तथा" है। अर्थात् जो कुछ व्यवहार नय कहता है उसका निषेध करना कि पदार्थ वैसा नहीं है यही निश्चय नय का लक्षण है। इसलिये कितने ही धर्मों के विवेचन क्यों न किये जायें सभी का निषेध करना मात्र ही निश्चय नय का एक कार्य है। अतएव वह एक ही है, अनेक नहीं हैं। ___ भावार्थ - शंकाकार का कहना युक्ति संगत नहीं है कारण कि - पदार्थ में, अनन्त धर्म हैं उनमें से एक-एक धर्म को विषय करने वाला व्यवहार तो अनेक है इसमें कोई संशय की बात नहीं है परन्तु एक-एक व्यवहार के निषेध से निश्चय नय एक-एक होकर अनेक होवे ऐसा नहीं बन सकता कारण कि 'न तथा'( ऐसा नहीं है)इस रूप से व्यवहार मात्र का प्रतिषेधक निश्चय नय सदा एक ही प्रकार का होने से एक ही होता है पर भिन्न-भिन्न व्यवहार के निषेध से एक-एक होकर अनेक होता नहीं है अर्थात् सदा यावत् । सम्पूर्ण) व्यवहार का प्रतिषेधक होने से निश्चय नय एक ही है। इसलिये निश्चय नय का सूचक 'न तथा' ऐसा माना है तथा वह सदा एक ही प्रकार का रहता है अर्थात अनेक व्यवहार के प्रतिषेधको विषय करने से निश्चय नय के विषय में नानापना ( भिन्न-भिन्नपना) आता नहीं है। इसलिये वह नानारूप हो ही नहीं सकता।
संदृष्टि: कनकत्वं तामोपाधेर्निवृत्तितो यादृक ।
अपरं तदपरमिह वा रुक्मोपाधेनिवत्तितस्तादक ॥ ६५८॥ अर्थ - निश्चय नय क्यों एक है इस विषय में सोने का दृष्टांत भी है। सोना तांबे की उपाधि की निवृत्ति से जिस प्रकार का भिन्न स्वर्णत्व है - वह जैसा है वैसा ही चांदी की उपाधि की निवृत्ति से भी उसी प्रकार का भिन्न स्वर्णपना है अथवा और २ अनेक उपाधियों की निवृत्ति से भी वैसा ही सोना है अर्थात् सोने में जो तांबा, पीतल, चांदी, कालिमा आदि उपाधियाँ हैं वे अनेक है परन्तु उनका अभाव होना अनेक नहीं है। किसी उपाधिका अभाव क्यों न हो वह अभाव एक ही रहेगा। हर एक उपाधि की निवृत्ति में सोना सदा सोना ही रहेगा।
भावार्थ – जिस प्रकार सुवर्णपना तांबे की उपाधि के अभाव से विवक्षित होता है वैसा ही चांदी आदि की उपाधि के अभाव से भी विवक्षित होता है अर्थात् जिस प्रकार पर-उपाधि के अभाव से शुद्ध-सुवर्णत्वसामान्य में अनेकता नहीं आती है उसी प्रकार भेद कल्पना रूप उपाधि के अभाव से, द्रव्यत्त्व सामान्य में भी अनेकता आ सकती नहीं है। इसलिये निश्चय नय में अनेकता कही नहीं जा सकती।
एतेज हतारते ये स्वात्मज्ञापराधतः केचित् ।
अप्येकनिश्चयनयमनेकमिति सेवयन्ति यथा ॥ ६५९ ॥ अर्थ - इस कथन से वे पुरुष खण्डित किये गये हैं जो कि अपने ज्ञान के दोष से एक निश्चय नय को अनेक समझते हैं जैसे
शुद्भदव्यार्थिक इति स्यादेकः शुद्धनिश्चयो नाम ।
अपरोऽशुद्धदव्यार्थिक इति तटशुद्धनिश्चयो नाम || ६६० ।। अर्थ - एक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। उसी का नाम शुद्ध निश्चय नय है। दूसरा अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है उसका नाम अशुद्ध निश्चय नय है। ऐसे निश्चय नय के दो भेद हैं।