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________________ ग्रन्थराज श्री पञ्वाध्यायी वह स्वात्मध्यान में तल्लीन हाकर तन्मय हो जाता और बुद्धिपूर्वक के विकल्पों से पार हो जाता है तब जो निर्विकल्प अवस्था होती है उस अवस्था को स्वात्मानुभूति कहते हैं। यह निश्चय नय से पार है। तस्मात् व्यवहार इव प्रकृतो नात्मानुभूतिहेतुः स्यात् । अयमहमस्य स्वामी सदवश्यम्भाविनो विकल्पत्वात् ।। ६५३॥ अर्थ-इसलिये व्यवहार नय के समान निश्चयनय भी आत्मानुभूति का कारण नहीं है क्योंकि उसमें भी यह आत्मा है। मैं इसका स्वामी हूँ।' ऐसा सत् पदार्थ में (आत्मा में ) अवश्यंभावी विकल्प उठता ही है। भावार्थ-व्यवहार नय का विषय तो मिथ्या है कारण कि उसके आश्रय स्वात्मानुभूति होती ही नहीं है परन्तु निश्चयनय भी विकल्पात्मक होने से तथा निश्चयनय से भी आगे स्वात्मानुभूति होने से ये निश्चय नय भी वास्तव में निर्विकल्पस्वात्मानुभूति का साक्षात्कारण नहीं है कारण कि निश्चयनय में भी यह आत्मा का स्वरूप है और मैं उसका स्वामी हूँ' इस प्रकार का विकल्प (राग) होता है। अगली भूमिका- अब यह कहते हैं कि जब तक निश्चयनय का अवलम्बन है तब तक व्यवहार का भी अवलम्बन अवश्य है क्योंकि एक नय अकेला कभी नहीं रहता। दोनों परस्पर सापेक्ष रहते हैं। विधि रूप विकल्प होगा तभी तो निषेधात्मक विकल्प की आवश्यकता पड़ेगी। दोनों नयों की परस्पर सापेक्षता तथा उनके अवलम्बन करने वाले मिथ्यादृष्टि ६५४, ६५५ शंका ननु केवलमिह निश्चयलयपक्षो यदि विवक्षितो भवति । व्यवहारान्जिरपेक्षो भवति तदात्मानुभूतिहेतुः सः ॥ ६५४ ॥ शंका - यदि यहाँ पर व्यवहार नय से निरपेक्ष केवल निश्चय नय का पक्ष ही विवक्षित किया जाय तो वह स्वात्मानुभूति का कारण होगा। जो ऐसा मानें तो? समाधान नैवमसम्भवदोषाधतो न कश्चिन्जयो हि निरपेक्षः । सति च विधौ प्रतिषेधः सति विधेः प्रसिद्धत्वात् ॥६५५ ॥ अर्थ -ऐसा नहीं है कारण वैसा मानने में असम्भव दोष आता है। कोई भी नय निरपेक्ष नहीं आ हो सकती है। क्योंकि विधि के होने पर प्रतिषेध का होना भी अवश्यभावी है और प्रतिषेध के होने पर विधिका होना भी प्रसिद्ध है। भावार्थ - नयों को निरपेक्ष कहने में यह असम्भव दोष है कारण कि- जब विधि की मुख्यता में गौणरूप से निषेध का तथा निषेध की मुख्यता में गौणरूप से विधि का ग्रहण हो जाता है। तब ही नय, नयपद के योग्य ठहरता है। इसलिये सब नय परस्पर सापेक्ष होने से उक्त शंका ठीक नहीं है। नय वस्तु के एक अंश को विषय करता है। इसलिये वह एक-विवक्षित अंश का विवेचन करता हुआ दूसरे अंश की अपेक्षा अवश्य रखता है। अन्यथा निरपेक्ष अवस्था में उसे नय ही नहीं कह सकते। विधि की विवक्षा में प्रतिषेध की सापेक्षता और प्रतिषेध की विवक्षा में विधि की सापेक्षता का होना आवश्यक है। इसलिये व्यवहार और निश्चय नय में परस्पर सापेक्षता ही है। अगली भूमिका - निश्चयनय अखण्ड द्रव्य को विषय करता है और व्यवहारनय उसके प्रत्येक अंग को विषय करता है। इस नियमानुसार निश्चयनय एक ही हो सकता है और व्यवहार नय अनेक ही होंगे। सो इसी को ऊहापोह पूर्वक समझाते हैं। निश्चय नय अनेक नहीं है - एक है ६५६ से १६१ तक शंका ननु च व्यवहारनयो भवति यथानेक एव सांशत्वात् । अपि निश्चयो नयः किल तद्वदनेकोऽथ चैकैकस्विति चेत् ॥ ६५६ ॥ शंका - जिस प्रकार व्यवहार नय एक-एक अंश को ग्रहण करने वाली होने से अनेक ही है, उसी प्रकार व्यवहार नय के समान निश्चय नय भी एक-एक मिलाकर नियम से अनेक है यदि ऐसा माना जाय तो?
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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