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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
सम्मईसणणाणं एसो लहदित्ति णतरि ववदेसं । सवणयपवरवरहिटो भणिदो जो सो समयसारो ॥ १५५ ।। (समयसार) सम्यग्दर्शनज्ञानं एषः लभते इति केवलं व्यपदेशम् ।
सर्वनयपक्षरहितो भणितो यः सः समयसारः ॥ १४ ॥ अर्थ-जो सर्व नयपक्षों से रहित कहा गया है वह समयसार है। इसी(समयसार)को ही केवल समयग्दर्शन और सम्यग्जान ऐसी संज्ञा (नाम ) मिलती है ( नामों के भिन्न होने पर भी नातु एकही है।
टीका-वास्तव में समस्त नय पक्षों के द्वारा खण्डित न होने से जिसका समस्त विकल्पों का व्यापार रुक गया है ऐसा समयसार है; वास्तव में इस एक को ही केवल सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का नाम प्राप्त है ( सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान समयसार से अलग नहीं है, एक ही है)। __ प्रथम, श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञान स्वभाव आत्मा का निश्चय करके, और फिर आत्मा की प्रगट प्रसिद्धि के लिये, पर पदार्थ की प्रसिद्धि की कारणभूत इन्द्रियों और मन के द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियों को मर्यादा में लेकर जिसने मतिज्ञान-तत्त्व को ( मतिज्ञान के स्वरूप को) आत्मसम्मुख किया है, तथा जो नाना प्रकार के नयपक्षों के अवलम्बन से होने वाले अनेक विकल्पों के द्वारा आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी मर्यादा में लाकर श्रुतज्ञान-तत्त्व को ( श्रुतज्ञान के स्वरूप को) भी आत्मसन्मुख करता हुआ, अत्यन्त विकल्प रहित होकर, तत्काल निजरस से ही प्रकट होता हुआ, आदि, मध्य और अन्त से रहित अनाकुल, केवल एक, सम्पूर्ण ही विश्व पर मानों तैरता हो ऐसे अखण्ड प्रतिभासमय, अनन्त विज्ञानघन परमात्मारूप समयसार का जब अनुभव करता है तब उसी समय आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है (अर्थात् उसकी श्रद्धा की जाती है) और ज्ञात होता है इसलिये समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है।
भावार्थ-पहले आत्मा का आगम ज्ञान से ज्ञानस्वरूप निश्चय करके, फिर इन्द्रिय बुद्धिरूप पतिज्ञान को ज्ञानमात्र में ही मिलाकर तथा श्रतज्ञानरूपी नयों के विकल्पों को मिटाकर भ्रतज्ञान को भी निर्विकल्पकरके एक अखंड प्रतिभास का अनुभव करना ही "सम्यग्दर्शन" और ''सम्यग्ज्ञान" के नाम को प्राप्त करता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहीं अनुभव से भिन्न नहीं है। गुरु उपदेश समाप्त हुआ।
इत्युक्तसूत्राटपि सविकल्पत्तात्तथानुभूतेश्च ।
सर्वोऽपि नयो यावान् परसमयः स च जयावलम्बी || ६५७॥ अर्थ-(१) ऊपर कहे हुवे सूत्र से अर्थात् गुरु उपदेश से (आगम प्रमाण से ) तथा (२) सविकल्प होने से (इस युक्ति से ) तथा (२) उसी के अनुसार अनुभव होने से जितना कोई नय है वह सब परसमय है तथा उनका अवलम्बन करने वाला जो है, वह सब परसमयी अर्थात् मिथ्यादृष्टि है, स्वात्मानुभूति से रहित है। ___ भावार्थ-सब नय विकल्पात्मक है इसलिये वे रागमिश्रित है। तथा व्यवहारनय के विषय ऊपर की दृष्टि तथा निश्चय के विषय ऊपर की दृष्टि में जोकि ऊपर ६२८-६२९-६३० में कहे अनुसार अन्तर है फिर भी सब नयों में राम का अंश उठता है। इसलिये नयों के विकल्प रूप राग से जीव जबतक अतिक्रान्त होकर निर्विकल्प नहीं होता तब तक परसमयी है।
स यथा सति सविकल्ये भवति स निश्चयनयो जिबेधात्मा ।
न विकल्पो ल निषेधो भवति चिदात्मानुभूतिमात्रं च ॥ ८॥ अर्थ-वह स्वात्मानुभूति की महिमा इस प्रकार है कि व्यवहार नय में वस्तु के अंशों को दिखलाने वाले विकल्प उठते हैं और निश्चय नय में अखण्ड वस्तु का ग्रहण होने के कारण उसमें निषेधात्मक विकल्प उठता है तथा स्वसमयस्थिति में न व्यवहार नय की विषयभूत विधि है कि न निश्चयनय का विषयभूत निषेध है परन्तु केवल चैतन्यमात्र आत्मा की अनुभूति है।
भावार्थ-उपर्युक्त स्वानुभूति की महिमा की प्रकाशक स्वसमय-प्रतिबद्ध अवस्था का खुलासा इस प्रकार से है कि व्यवहार नय भेद का उपदेशक है इसलिये उसमें भेदसूचक विधिरूप विकल्प उठते हैं और निश्चय नय उसका निषेध