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प्रथम खण्ड / तृतीय पुस्तक
तथा जो निश्चय से भी ऊपर निर्विकल्प स्थिति में लीन हैं इसको भी स्वसमयी मानना चाहिये और जो व्यवहार नयावलम्बी ही है उसको ही परसमयी अर्थात् मिध्यादृष्टि कहना चाहिये परन्तु निश्चय नयावलम्बी को परसमयी अर्थात्, मिध्यादृष्टि नहीं कहना चाहिये। आचार्य महाराज दोनों को परसमयी (मिथ्यादृष्टि ) कहना चाहते।
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समाधान ६४६ से ६५३ तक
सत्यं किन्तु विशेषो भवति स सूक्ष्मो गुरूपदेश्यत्वात् ।
अपि निश्चयनयपक्षादपरः स्वात्मानुभूति महिमा स्यात् ॥ ६४६ ॥ अर्थ- आपकी शंका ठीक है। इसमें कुछ विशेषता है। वह विशेषता सूक्ष्म है क्योंकि वह विशेषता गुरु के द्वारा उपदेश करने योग्य है। निश्चय नय के पक्ष से स्वात्मानुभूति की महिमा भिन्न है।
भावार्थ-व्यवहार नय मिध्या अर्थ का उपदेश करने वाला है इसलिये वह तो मिथ्या और प्रतिषेध्य है तथा इस व्यवहार के विषय पर दृष्टि रखने वाला भी मिथ्यादृष्टि है ( ६२८ ) निश्चय नय सम्यकक्त्व है- निर्विकल्प जैसा है तथा उसके ऊपर दृष्टि रखने वाला ही सम्यग्दृष्टि है ( ६२९-६३० ) । इसलिये निश्चय नयवाली परसमयी (मिथ्यादृष्टि ) नहीं है। ऐसा शंकाकार ने कहा वह तो सत्य है परन्तु इतना विशेष है कि जो कि निश्चयनयावलम्बी आत्मज्ञानी गुरु के उपदेशानुसार थोड़े समय में विकल्प (राग) से अतिक्रांत होकर स्वात्मानुभूति प्रगट करके सम्यग्दृष्टि अवश्य होगा तो भी स्वात्मानुभूति होने से पहले जब तक उस निश्चयावलम्बी को विकल्प ( बुद्धिपूर्वक का राग ) रहता है तब तक उसको भी परसमयीपना रहता है। वह गुरु का उपदेश इस प्रकार हैं:
दोहवि णयाण भणियं जाणइ णवरं तु समयपडिबद्धो ।
ण णयपवरचं गिण्हदि किंचिति णयपवस्वपरिहीणो ॥ १४३ ॥
समयसार
द्वयोः अपि नययोः भणितं जानाति केवलं तु समयप्रतिबद्धः । न तु नयपक्षं गृह्णति किंचिदपि नयपक्षपरिहीनः ॥ १४३ ॥ अर्थ- नयपक्ष से रहित जीव समय से प्रतिबद्ध होता हुआ (अर्थात् चित्स्वरूप आत्मा का अनुभव करता हुआ ), दोनों ही नयों के कथन को मात्र जानता ही है परन्तु नयपक्ष को किंचित् मात्र भी ग्रहण नहीं करता है।
टीका-जैसे केवली भगवान्, विश्व के साक्षीपने के कारण, श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहार, निश्चयनयपक्षों के स्वरूप को ही मात्र जानते हैं, परन्तु निरंतर प्रकाशमान, सहज, विमल, सकल केवलज्ञान के द्वारा सदा स्वयं ही विज्ञानघन हुवा होने से, श्रुतज्ञान की भूमिका की अतिक्रान्तता के द्वारा ( अर्थात् श्रुतज्ञान की भूमिका को पार कर चुकने के कारण ) समस्त नयपक्ष के ग्रहण से दूर हुए होने से किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करते, इसी प्रकार ( श्रुतज्ञानी आत्मा ), क्षयोपशम से जो उत्पन्न होते हैं, ऐसे श्रुतज्ञानात्मक विकल्प उत्पन्न होने पर भी पर का ग्रहण करने के प्रति उत्साह निवृत्त हुवा होने से, श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहार निश्चयनय पक्षों के स्वरूप को ही केवल जानते हैं, परन्तु तीक्ष्ण ज्ञानदृष्टि से ग्रहण किये गए निर्मल, नित्य उदित, चिन्मय, समय से प्रतिबद्धता के द्वारा ( अर्थात् चैतन्यमय आत्मा के अनुभवन द्वारा ) अनुभव के समय स्वयं ही विज्ञानघन हुये होने से श्रुतज्ञानात्मक समस्त अंतर्जल्प तथा बहिर्जल्परूप विकल्पों की भूमिका की अतिक्रान्तता के द्वारा समस्त नयपक्ष के ग्रहण से दूर हुवे होने से, किसी भी नय पक्ष को ग्रहण नहीं करता, वह ( आत्मा ) वास्तव में समस्त विकल्पों से परे, परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप, अनुभूति मात्र समयसार है ।
भावार्थ - जैसे केवली भगवान सदा नयपक्ष के स्वरूप के साक्षी (ज्ञाता दृष्टा ) हैं उसी प्रकार श्रुतज्ञानी भी जब समस्त नयपक्षों से रहित होकर शुद्ध चैतन्यमात्र भाव का अनुभवन करते हैं तब वे नयपक्ष के स्वरूप के ज्ञाता ही हैं, यदि एक नय का सर्वथा पक्ष ग्रहण किया जाये तो मिध्यात्व के साथ मिला हुआ राग होता है; प्रयोजन वश एक नय को प्रधान करके उसका ग्रहण करें तो मिध्यात्व के अतिरिक्त मात्र चारित्र मोह का राग रहता है और जब नय पक्ष को छोड़कर वस्तु स्वरूप को मात्र जानते ही है तब श्रुतज्ञानी भी केवली की भाँति वीतराग जैसे ही होते हैं ऐसा जानना । अब यह कहते हैं कि नियम से यह सिद्ध है कि पक्षातिक्रान्त समयसार है