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________________ १७६ ग्रन्थराज श्रीपञ्चाध्यायी निश्चय नय का वाच्य विषय ६४२ से ६४४ तक शंका ननु निश्चयस्य वाच्य किमिति यदालम्ब्य वर्तते ज्ञानम् । सर्वविशेषाभावेऽत्यन्ताभावस्य वै प्रतीतत्वात || ६५२॥ शंका-निश्चय नय का क्या वाच्य ( विषय) है जिसको अवलम्बन करके निश्चयात्मक ज्ञान प्रवर्तता है क्योंकि सम्पूर्ण विशेषों के अभाव में निश्चय से अत्यन्ताभाव की ही प्रतीति होती है? इटमत्र समाधानं व्यवहारस्य च नयस्य यदताच्यम् । सर्वविकल्पाभावे तदेव निश्चयनयस्य यद्वाच्यम् ॥ ५३॥ अर्थ-ऊपर की शंका का यहाँ पर समाधान किया जाता है कि जो कुछ व्यवहार नय कावाच्य है उसमें से सम्पूर्ण विकल्पों ( भेदों) को दूर करने पर जो वाच्य रहता है वही निश्चय नय का वाच्य है। भरत्यत्र च संदृष्टिस्तृणाग्निरिति वा सदोष्ण एवाग्निः । सर्वविकल्याभावे तसंस्पर्शदिनाप्यशीतत्वम् || ६| अर्थ-निश्चय नय के वाच्य के विषय में दृष्टान्त भी है। जिस समय तण की अग्नि (कण्डेकी अग्नि-कोयले की अग्नि) अथवा उष्ण ही अग्नि ऐसा सविकल्प व्यवहार होता है, उस समय तणाग्नि-उष्णाग्नि आदि विशेष रूप उन सब विकल्पों के अभाव में भी संस्पर्शनादि के द्वारा वह अग्नि उष्णात्मक है ऐसा जाना जा सकता है। भावार्थ-उष्णात्मक धर्म की अपेक्षा अग्नि को उष्ण कहना तथा तृण के निमित्त से होने वाली अग्नि तो तृणाग्नि कहना यह व्यवहार नय है तथा व्यवहार का प्रतिषेधक निश्चय नय है। व्यवहार नय द्वारा प्रतिपाद्य विषय एक-एक धर्म रूप पड़ता है परन्तु व्यवहार के संपूर्ण भेदों का जो प्रतिषेध है वह निश्चय नय का वाच्य है और यह निश्चय नय का विषय व्यवहार नय के विकल्प के अभाव रूप होने से उसमें भेद नहीं पड़ता । जैसे अग्नि स्पर्शनादिज्ञान द्वारा जानी जा सकती है उसी प्रकार निश्चय नय का विषय अनिर्वचनीय होने पर भी ज्ञान द्वारा जाना जा सकता है। निषेध कहने से उसका अभावात्मक वाच्य नहीं समझना चाहिये किन्तु शुद्ध (अखण्ड) द्रव्य समझना चाहिये। । ___अगली भूमिका-इस प्रकार निश्चय नय का विषय बतलाकर अब एक सूक्ष्म रहस्य की बात यह समझाते हैं कि यहाँ तक आने पर भी जब तक निश्चय नय का अवलम्बन है तब तक भी परसमयी अर्थात् मिथ्यादृष्टि है। जब उस निश्चय के भी अवलम्बन को छोड़कर नयातीत अवस्था में अर्थात् स्वात्मानुभूति में प्रवेश करता है तब सम्यग्दृष्टि है। यह विषय ज्यों का त्यों श्रीसमयसारजी गाथा १४३, १४४ तथा उनके कलशों का है। निश्चयनयावलम्ची भी परसमयी है केवल जयातीत पुरुष रतात्मानुभूति रूप है । इसकी सिद्धि ६४५ से ६५३ तक । शंका ननु चैवं परसमयः कथं स निश्चयनयावलम्बी स्यात् । अविशेषादपि स यथा व्यवहारनयावलम्बी यः ॥ ६४५11 शंका-जो व्यवहार नय का अवलम्बन करने वाला है वह जिस प्रकार सामान्य रीति से परसमयी अर्थात मिथ्यादष्टि है,स्वात्मानुभूति से रहित है, उसी प्रकार जो निश्चय नय का अवलम्बन करने वाला है वह परसमयी अर्थात मिथ्यादष्टिस्वात्मानुभूति से रहित कैसे है? हमारा पूछने का भाव यह है कि व्यवहार नय के अवलम्बन करने वाले को मिथ्यावृष्टि कहा गया सो तो ठीक परन्तु निश्चयनयावलम्बी को भी मिथ्यादृष्टि ही कहा गया है सो क्यों ? भावार्थ-शंकाकार कहता है कि पहले श्लोक ५०६ से ५१० तक सब नयों को अपरमार्थरूप और हेय कहा है। उससे ऐसा प्रतिभासित होता है कि व्यवहारमयावलम्बी और निश्चयनयावलम्बी दोनों परसमयी (मिथ्यादृष्टि) हैं। उनमें व्यवहारनयावलम्बी को परसमयी कहा वह तो ठीक है परन्तु निश्चयनयावलम्बी को परसमयी कहा है वह ठीक नहीं है? शंकाकार के पेट की बात यह है कि जो व्यवहार को छोडकर निश्चय में आया है उसे भी स्वसमयी मानना चाहिये
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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