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प्रथम खण्ड / तृतीय पुस्तक
भावार्थ- गाथा में 'बलात्' शब्द डाला है वह खास लक्ष में रखने योग्य है। मुमुक्षु जीव को व्यवहार नय की भावना नहीं है फिर भी अपने में राग होने से वह बलपूर्वक आये बिना रहता नहीं। यह भाव दर्शाने के लिये 'बलात्' शब्द डाला है।
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तस्मादाश्रयणीयः केषाञ्चित् स नयः प्रसङ्गत्वात्
अपि सविकल्पानामित न श्रेयो निर्विकल्पबोधवताम् ॥ ६३९ ॥
अर्थ - इसलिये प्रसंगवश (ऊपर के कार्यों के लिये ) किन्हीं किन्हीं को व्यवहार नय भी आश्रयणीय ( आश्नय करने योग्य ) है । वह किन्हीं सविकल्प बोधवालों के लिये ही आश्रय करने योग्य है। सविकल्पक बोधवालों के समान निर्विकल्पक बोधवालों के लिये वह नय हितकारी नहीं है।
भावार्थ - निर्विकल्प ज्ञान में प्रमाण नय निक्षेप का उदय नहीं रहता इसलिये निर्विकल्पकों को व्यवहार नय से क्या प्रयोजन 1
(२) जहाँ तक निश्चय नय द्वारा प्ररूपित वस्तु को न पहचाने वहाँ तक व्यवहार नय द्वारा वस्तु का निश्चय करता
1 इसलिये नीचे की दशा में 'व्यवहार नय आदरणीय नहीं है' ऐसी हेयबुद्धि को लक्ष में रखकर वह व्यवहार नय वस्तु स्वरूप समझने के लिये कार्यकारी है, अर्थात् जो व्यवहार नय को उपचार मात्र मानकर उसके द्वारा वस्तु का निर्णय करे तो वहाँ व्यवहार के प्रति हेय बुद्धि होने से वह कार्यकारी कहलाये पर जो निश्चय की माफिक व्यवहार नय को जरा भी परमार्थभूत माने तो वह व्यवहार नय उलटा अकार्यकारी हो जाये ।
शंका
तुम
चैकस्मान्नुयात्कथं न स्यात् ।
विप्रतिपत्तिनिरासो वस्तुविचारश्च निश्चयादिति चेत् ॥ ६४० ॥
अर्थ - अपने अभीष्ट की सिद्धि एक ही नय (निश्चय ) से क्यों नहीं हो जाती है ? विवाद का परिहार और वस्तु का विचार भी निश्चय से ही हो जायगा। इसलिये केवल निश्चय नय ही मान लो ? व्यवहार नय के मानने की क्या आवश्यकता है ?
समाधान
नैवं यतोऽस्ति भेटोs निर्वचनीयो नयः स परमार्थः ।
तस्मात्तीर्थस्थितये श्रेयान् कश्चित् स वावदूकोऽयि ॥ ६४१ ॥
अर्थ ऊपर जो शंका की गई है वह ठीक नहीं है क्योंकि दोनों नयों में भेद है। वह निश्चय नय अनिर्वचनीय है। उसके द्वारा पदार्थ का विवेचन नहीं किया जा सकता । इसलिये तीर्थ की स्थिति के लिये कोई बोलने वाला भी नय ( व्यवहार नय) चाहिये ।
भावार्थ - इन कामों के लिये निश्चय नय उपयोगी नहीं है इसलिये एक निश्चय नय ही मानना ठीक नहीं है। तीर्थस्थिति अर्थात् ( १ ) जैनदर्शन के विषय में विप्रतिपत्ति तथा संशय के दूर करने के लिये ( २ ) वस्तु स्वरूप के सम्बन्ध में कोई विरुद्ध प्रतिपादन करता हो तो उसको हटाने के लिये। (३) अपने को संशय होवे तो उसका विचार करके निर्णय करने के लिये अथवा विशेष ज्ञान की प्राप्ति अर्थ विचार करने के लिये और (४) गुरु शिष्य की समझनेसमझाने की पद्धति के लिये व्यवहार नय भी उपयोगी है।
अगली भूमिका- ६३७ से ६४१ तक व्यवहार नय ही स्थापना करके अब ६४२ से ६४४ तक यह समझाते हैं कि विषय व्यवहार और निश्चय का एक द्रव्य ही है अर्थात् द्रव्याश्रित है। अन्तर केवल इतना है कि व्यवहार में वह भेदरूप है, निश्चय में अभेदरूप है । व्यवहार का विषय शब्द और विकल्प में प्रकट कर दिया जाता है। निश्चय का विषय शब्द और विकल्प में प्रकट नहीं किया जा सकता है किन्तु अनुभवगम्य है। 'नेति' रूप जो सूक्ष्म शब्द या विकल्प है वह केवल अनुभवगम्य अखण्ड विषय का संकेत मात्र है। विषय इसका अखण्ड अनिर्वचनीय हो है ।