SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७४ ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी समाधान ६३३ से ६३६ तक सत्यं न गुणाभावो दयाभावो न नोभयाभावः | न हि तद्योगाभावो व्यवहारः स्यात्तथाप्यभूतार्थः ॥ ६३३ ॥ अर्थ-ठीक है। न गुण का अभाव है, न द्रव्य का अभाव है, न दोनों का अभाव है और न उन दोनों के योग का अभाव है तो भी व्यवहार नय मिथ्या ही है। क्या मिथ्या है? इसी को स्पष्ट करते हैं: इदमत्र निदान किल गुणवदव्यं यदुक्तमिह सूत्रे । अस्ति गुणोऽस्ति द्रव्यं तद्योगात्तदिह लब्धमित्यर्थात ॥३५॥ अर्थ-व्यवहार नय मिथ्या है इसमें यह कारण है कि जो सूत्र में 'गुणपर्ययवद्रव्यं' कहा गया है उसका यह अर्थ निकलता है कि एक कोई गुण पदार्थ जुदा है। एक द्रव्य पदार्थ जुदा है। उन दोनों के योग से द्रव्य सिद्ध होता है। तदसन्न गुणोऽस्ति यतो न दव्यं नोभयं न तद्योगः । केवलमद्वैतं सद्भवतु गुणो वा तटेव सद्रव्यम् ॥ ६३५ ॥ अर्थ-परन्त ऐसा कथन ही मिथ्या है क्योंकिन कोई गणहैन द्रव्य है.नदोनों है और न उन उनका योग ही है किन्तु केवल अद्वैत सत् है। इस सत् को चाहे गुण मानो अथवा द्रव्य मानो परन्तु ये भिन्न नहीं है अर्थात् निश्चय से अभिन्न ही हैं, एक ही हैं। तस्मान्यायागत इति व्यवहारः स्यान्जयोऽप्यभूतार्थ: 1 केवलमनुभवितारस्तस्य च मिथ्यादृशो हतारतेऽपि ॥ ६३६ ॥ अर्थ-इसलिये यह बात न्याय से पाप्त हो चुकी कि व्यवहार नय अभूतार्थ है। जो लोग केवल उसी व्यवहार नय के अनुभव करने वाले हैं वे मिथ्यादृष्टि है वे भी यहाँ खण्डित हो चुके । ___ भावार्थ-गाथा में जो केवल' शब्द का प्रयोग किया गया है वह यह सूचना देता है कि व्यवहार करते-करते कभी भी निश्चय प्रगट नहीं होता । व्यवहार नय उक्त प्रकार के भेद को विषय करता है कारण कि विधिपूर्वक भेद करना ही 'व्यवहार' शब्द का अर्थ है। इसलिये सिद्ध होता है कि व्यवहार नय अभूतार्थ ही है। ____ अगली भूमिका- इस प्रकार निश्चय को प्रतिषेधक और व्यवहार को प्रतिषेध्य सिद्ध किया। अब ६३७ से ६४१ तक यह समझाते हैं कि व्यवहार नय प्रतिषेध्य है, हेय है, उपादेय नहीं है फिर भी वह है जरूर । कुछ प्रयोजन के लिए स्थापन करने योग्य जरूर है। सर्वथा अभाव करने योग्य नहीं है क्योंकि वह परमार्थ का प्रतिपादक है। (श्री समयसार गाथा १० की टीका) व्यवहारनय की स्थापना ६३७से ६४१ तक शंका ननु चैवं चेन्नियमादादरणीयो लयो हि परमार्थः । किमकिञ्चिकारित्वाद व्यवहारेण तथाविधेन यतः ॥३७॥ शंका-यदि व्यवहार नय मिथ्या ही है तो केवल निश्चय नय ही आदरणीय होना चाहिये। व्यवहार नय मिथ्या है इसलिये कुछ भी करने में असमर्थ है। फिर उसे सर्वथा कहना ही क्यों चाहिये ? समाधान ६३८-६३९ जैवं यतो बलादिह विप्रतिपत्तौ च संशयापत्तौ । वस्तुविचारे यदि ता प्रमाणमभयालम्बि तज्ज्ञानम् ॥ ६३८॥ अर्थ-ऊपर की शंका ठीक नहीं है कारण कि किसी विषय में विवाद होने पर अथवा किसी विषय में संदेह होने का वस्तु के विचारकरने में व्यवहार नयका अवलम्बन बलपूर्वक( अवश्य ही) प्रवत्तहोता है।वस्त की मर्यादा का निर्णय करने के लिए जो ज्ञान निश्चय नय और व्यवहार नय दोनों का अवलम्बन करता है यही ज्ञान प्रमाण ज्ञान समझा जाता है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy