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प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक
भावार्थ-व्यवहार नय के निषेध का कारण विकल्यात्मक बोध नहीं है। विकल्पात्मक बोध तो निश्चय नय में भी है किन्तु उसका कारण अयथार्थ बोध है अर्थात् व्यवहार नय जो वस्तु का स्वरूप कहता है वह मिथ्या है इसलिए वह निषेध करने योग्य है। इसी बात को नीचे स्पष्ट करते हैं।
व्यवहार किल मिथ्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकश्च यतः ।
प्रतिषेध्यस्तरमादिह मिथ्यादृष्टिस्सदार्थदृरिश्च || ६२८॥ अर्थ-व्यवहार नय मिथ्या है क्योंकि वह स्वयं ही मिथ्या उपदेश देता है इसलिये वह प्रतिषेध्य( निषेध करने योग्य) है और इसीलिये उस व्यवहार नय के अनुसार पदार्थ को देखने वाला ( श्रद्धान करने वाला) भी मिथ्यादृष्टि है।
भावार्थ-व्यवहार नय विकल्यात्मक होने से मिथ्या नहीं है परन्तु वह मिथ्या पदार्थ का कश्चन करने वाला होने से मिथ्या है।
स्वयमपि भूतार्थत्वाद् भवति स निश्चयजयो हि सम्यक्त्वम् ।
अविकल्पवदतिनागिन स्यादनुभवैकगम्यवाच्यार्थः ॥२९॥ अर्थ-वह निश्चय नय यथार्थ विषय का प्रतिपादन करने वाला है इसलिये वह सम्यकप (सच्चा और सभ्यकत्व का विषय है)। यद्यपि निश्चय नय भी विकल्पात्मक है तो भी वह विकल्प रहित सा प्रतीत होता है। यद्यपि यह "न" इत्याकारक वचन से कहा जाता है तो भी उसमें भेदजनक कोई प्रकार का विकल्प न होने से वचन अगोचर ही जैसा प्रतीत होता है। निश्चय नय का क्या वाच्य है यह बात अनुभवगम्य ही है अर्थात निश्चय नय के विषय का बोध अनुभव से ही जाना जाता है। वचन से वह नहीं कहा जाता क्योंकि जो कुछ वचन से विवेचन किया जायेगा वह सब भेद रूप होने से व्यवहार नय का ही विषय हो जाता है इसलिये वचन से तो वह "न" निषेध रूप ही वक्तव्य है। पर उसका विषय वक्तव्य नहीं है।
यदि वा सम्यग्दृष्टिस्तदृष्टिः कार्यकारी स्यात् ।।
तस्मात् स उपादेयो लोपाटेयस्तदन्यनयवादः ॥ १३० ।। अर्थ-अथवा उस निश्चय नय के विषय पर श्रद्धान करने वाला ही सम्यग्दृष्टि है और वही कार्यकारी है। इसलिए निश्चय नय ही उपादेय (ग्राह्य ) है। अन्य जितना भी व्यवहार नयवाद है कोई ग्राह्य नहीं है ( हेय है)।
भावार्थ-यहाँ विकल्प सहित के निश्चय नय को सम्यक्त्व कहा है और उसके विषय पर दृष्टि रखने वाले कोही सम्यग्दृष्टि कहा है उसका कारण यह है कि निश्चय नय के विषय पर दृष्टि रखने वाला थोड़े समय में ही बुद्धिपूर्वक विकल्प (राग) को हटाकर स्वात्मानुभूति प्रगट कर सकता है। भेद में अटकने वाले को यह अवकाश नहीं है।
शंका ६३१-६३२ । ननु च व्यवहारमयो भवलि स सर्वोऽपि कथमभूतार्थः ।
गुणपर्ययवद् द्रव्यं तथोपदेशात्तथानुभूतेश्च ॥ ६३१॥ शंका-सम्पूर्ण ही व्यवहार नय किस प्रकार मिथ्या हो सकता है ? क्योंकि 'गुणपर्ययवद् द्रव्यं ये जो द्रव्य को आगम उपदेश से गुणपर्यायवाला कहा है वैसे ही वह अनुभव से भी गुणपर्यायवाला ही प्रतीत होता है।
शका चालू अथ किमभूतार्थत्वं द्रव्याभावोऽथ वा गुणाभातः |
उभयाभावो ता किल तद्योगस्याप्यभावसादिति चेत् ॥ ३२ ॥ अर्थ-शंकाकार पूछता है कि 'गुणपर्ययवद् द्रव्यं' यहाँ पर क्या अभूतार्थपना है ? द्रव्य का अभाव है अथवा गुण का अभाव है अथवा दोनों का अभाव है अथवा उन दोनों के योग ( मेल ) का अभाव है। किसका अभाव है जिससे कि 'गुणपर्ययवद् द्रव्य' यह कश्चन अभूतार्थ समझा जाय । यदि किसी का अभाव नहीं है तो फिर व्यवहार नय मिथ्या क्यों ?