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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
हाता हा
यदि ता सदिति सतः स्यात्संज्ञा सत्तागुणस्य सापेक्षात् ।
लब्ध तदनुक्तमपि सदभावाल सदिलि वा गुणो दव्यम् ॥२३॥ अर्थ-अथवा सत्ता गुण की अपेक्षा सहित होने से 'सत् ये द्रव्य की संज्ञा है। इसलिये सत् इतना कहने से ही बिना कहे हुये भी अस्तित्व गुण अथवा अस्तित्व गुण विशिष्ट द्रव्य का बोध होता है।
भावार्थ-सत्ता गुण की अपेक्षा से 'सत्को ' सत् कहते हैं। इसलिये बिना कहे ही सतपने से 'सत्'यह गुण अथवा द्रव्य कहा जाता है अर्थात् सत् शब्द का अर्थ उपचार से सत्वगुणवान् (सत्वगुण वाला द्रव्य) हो जाता है। सत् का अर्थ गुण तथा सत्वयुक्त द्रव्य तथा जीव का अर्थ जीवयुक्त (प्राणदिवान)हो जाता है। अतः सत् लक्ष्य और सत्वादिक उसका लक्षण और जीव लक्ष्य तथा जीवत्व उसका लक्षण मानकर उसमें लक्ष्य लक्षण भाव रूप भेद कल्पना होने से इनका भी व्यवहार में ही अन्तर्भाव(समावेश) हो जाता है। अतः विशेष निरपेक्ष (भेदको अपेक्षा बिना) केवल सत् और जीव को निश्चय नय का उदाहरण मानने में उक्त दोष आते हैं ऐसा समझना चाहिए।
यदि च विशेषणशुन्यं विशेष्यमात्रं सुनिश्चयस्यार्थः ।
द्रव्यं गुणों न पर्यय इति वा व्यवहारलोयदोषः स्यात् ॥ ६२४॥ अर्थ-यदि विशेषण रहित विशेष्य ही केवल निश्चय नय का विषय (उदाहरण) माना जाय तो द्रव्य गुण और पर्याय ये कुछ भी नहीं बनने से व्यवहार के लोप का प्रसंग प्राप्त होता है।
भावार्थ-जो विशेषण शुन्य विशेष्य मात्र को निश्चय नय का विषय मानोगे तो विशेषण मात्र का सर्वथा अभाव मानना पड़ेगा तथा विशेषण मात्र के अभाव में द्रव्य, गुण या पर्याय का व्यवहार भी नहीं किया जा सकेगा। इसलिए विशेषणशून्य केवल विशेष्य को निश्चय नय का विषय ( उदाहरण) मानने से 'व्यवहार लोप' का प्रसंग दोष आता है।
तस्मादतसेयमिदं यावदुदाहरणपूर्वको रूपः ।
तावान् व्यवहारनयस्तरय निषेधात्मकस्तु परमार्थः ।। ६२५ ॥ अर्थ-इसलिये यह निश्चय करना चाहिये कि जितना भी उदाहरण पूर्वक कथन है उतना सब व्यवहार नय है। उस व्यवहार का निषेधक ही निश्चय नय है। 'नेति' इस विकल्प से वह कहा जाता है। विशेषण विशेष्य का विभाग उसमें नहीं होता और उसका कोई उदाहरण भी नहीं होता। __ अगली भूमिका- इस प्रकार ६११ से ६२५ तक निश्चय नय को उदाहरण रहित सिद्ध करके अब ६२६ से १३६ तक व्यवहार नय प्रतिषेध्य क्यों है और निश्चय नय प्रतिषेधक क्यों है इसको समझाते हैं। व्यवहार प्रतिषेध्य है, निश्चय प्रतिषेधक है ६२६ से १३६ तक।
शंका ननु च व्यवहारनयो भवति च निश्चयनयो विकल्पात्मा ।
कथमाद्यः प्रतिषेध्योऽरत्यन्य: प्रतिषेधकश्च कथमिति चेत् ॥६२९ ।। शंका-व्यवहार नय भी विकल्पात्मक है और निश्चयनय भी विकल्पात्मक है फिर पहली व्यवहार नय क्यों निषेध करने योग्य है तथा दूसरी निश्चय नय क्यों उसका निषेध करने वाला है? अर्थात जब दोनों ही नय विकल्पात्मक हैं तो एक निषेध्य और दूसरा निषेधक उनमें कैसा?
समाधान ६२७ से ६३० तक न यतो विकल्पमानमर्थाकृतिपरिणतं यथा वस्तु ।
प्रतिषेध्यस्य न हेतुश्चेदयथार्थरस्तु हेतुरिह तस्य ॥ ६२७ ॥ अर्थ-उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि हरएक वस्तु में उस वस्तु के अनुरूप अर्थाकार परिणमन करने वाले ज्ञान को ही विकल्प कहते हैं। वह विकल्प (राग सहित ज्ञान का अंश) प्रतिषेध्य का कारण नहीं है क्योंकि वह विकल्पात्मक ज्ञान तो व्यवहार निश्चय दोनों में होता है। उसके प्रतिषेध्य का कारण तो अयथार्थता है (क्योंकि व्यवहार नय द्वारा जो वस्तु का स्वरूप कहा जाता है वह यथार्थ नहीं होता है अर्थात् व्यवहार नय मिथ्या स्वरूप की प्ररूपणा करता है इसलिये प्रतिषेध्य है।