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प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक
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अथ चिदेव जीवो यदुदाहियतेऽप्यभेदबुद्धिमता।
उक्तवदत्रापि तथा व्यवहारनयो न परमार्थः ॥ ६१७॥ अर्थ-जिस प्रकार सत और एक में लक्षपा लक्ष्य का भेद होता है उसी प्रकार"चित ही जीव है। अभेद बुद्धि से निश्चय नय का दिया जाता है वहाँ भी उपर्युक्तानुसार जीव लक्ष्य और चित् उसका लक्षण है इससे वह भी व्यवहार नय सिद्ध होता है निश्चय नय सिद्ध नहीं होता । अतः यह उदाहरण भी व्यवहार नय है निश्चय नय नहीं।
एवं सुसिद्धसंकरदोये सति सर्वशून्यदोषः स्यात् ।
जिरपेक्षस्य नयत्वाभावात्तलक्षणाद्यभावत्वात् ॥ ६१८॥ अर्थ-इस प्रकार दोनों ही नयों में संकरता आती है। संकरता आने से सर्वशून्य दोष आता है। वह इस प्रकार कि दोनों व्यवहार के उदाहरण बनने से एक व्यवहार नय ही बचता है। निश्चय नय नहीं रहता यह संकरता हुई। एक नय निरपेक्ष है। तिरपेक्ष है उसमें नमपना ही नहीं आता क्योंकि निरपेक्षता नय का लक्षण ही नहीं है। इस प्रकार व्यवहार नय का भी अभाव प्राप्त होने से दोनों का अभाव होता है वही सर्वशून्यता है। भावार्थ के लिये पूर्व ६१३ देखिये।
शंका ६१९-६२० ननु केवलं सदेव हि यदि वा जीतो विशेषनिरपेक्षः ।
भवति च तदुदाहरणं भेदाभावस्तदा हि को दोषः ॥ ६१९॥ शंका-यदि सत् को एक कहने से और जीव को चित् रूप कहने से भी व्यवहार नय का ही विषय आजाता है तो निश्चय नय का उदाहरण विशेष निरपेक्ष ( भेद की अपेक्षा बिना) केवल सत् ही कहना चाहिए अथवा जीव ही कहना चाहिये। सत् का एकत्व विशेष और जीव का चित् विशेष नहीं कहना चाहिये। सत् मात्र कहने से अथवा जीव मात्र कहने से भेद का अभाव होने से उस निश्चय का उदाहरण बन जाता है। फिर कोई दोष नहीं रहता है क्योंकि सत्-मात्र और जीव-मात्र कहने से भेदबुद्धि नहीं रहती।
शंका चालू अपि चैवं प्रतिनियतो व्यवहारस्यावकाश एव यथा ।
सटनेकं च सदेकं जीवश्चिदव्यमात्मवानिति चेत ॥ ६२० ।। अर्थ-और ऐसा मानने पर व्यवहार का अवकाश निश्चित रूप से रह ही जाता है। जैसे यह कहना कि सत् एक है, सत् अनेक है, जीव चिद्रव्य है, जीव आत्मवान् है । यद भेद रूप ज्ञान ही व्यवहार नय का लक्षण है। निश्चय नय में केवल सत् अथवा जीव ही उदाहरण मान लेने चाहियें। निश्चय को उदाहरण रहित मानना ठीक नहीं है,यदि ऐसा मानें तो?
समाधान ६२१ से ६२५ तक न यतः सदिति विकल्पो जीवः काल्पनिक इति विकल्पश्च । सत्तद्धर्मतिशिष्टस्तद्वानुपचर्यते
स यथा ॥ २१॥ अर्ध-शंकाकार का उपर्युक्त कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि सत् यह विकल्प और जीव यह विकल्प दोनों ही । काल्पनिक हैं क्योंकि उस-उस धर्म से विशिष्ट (सहित) होने से अर्थात् जिसमें जो धर्म रहता है उस-उस धर्म वाला उपचार नय से वह कहने में आता है जैसे
जीवः प्राणादिमतः संज्ञाकरणं तदेतदेवेति ।
जीवनगुणसापेक्षो जीव: प्राणादिमानिहारत्यर्थात् ॥ ६२२ ।। अर्थ --जो प्राणों का धारण करने वाला है उसी को जीव इस नाम से कहा जाता है अथवा जो जीवन गुण की अपेक्षा रखने वाला है उसे ही जीव कहते हैं। इसलिये जीवमात्र कहने से भी प्राण विशिष्ट और जीवत्वगुण विशिष्ट का ही बोध होता है। इसी प्रकार: