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प्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
शंका चालू स यथा व्यवहारनयः सदनेक स्थाच्चिदात्मको जीवः।
तदितरनयः स्वपक्ष वदतु सटेकं चिदात्मवत्विति चेत् ॥ ६१२ ।। अर्थ-स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि जिस प्रकार व्यवहार नय सत् को अनेक बतलाता है। जीव को चिदात्मक बतलाता है (यह व्यवहार नय का उदाहरण है) उसी प्रकार निश्चय नय भी 'सत् एक है, जीव चित् ही है' इस प्रकार अपने पक्ष को कहे ( यह निश्चय का उदाहरण है।(ऐसा कहने से निश्चय नय उदाहरण सहित भी हो जाता है और व्यवहार नय से भिन्न भी हो जाता है) यदि ऐसा माने तो?
समाधान ६१३ से ६१८ तक जा यतः सदोसे हानि का नक्शून्यदोषश्च ।
स यथा लक्षणभेदालक्ष्यविभागोऽरत्यनन्यथासिद्धः ॥ ६१३॥ अर्थ-शंकाकार का ऐसा मानना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने में संकर दोष और सर्वशून्य दोष आता है क्योंकि लक्षण के भेद से लक्ष्य का भेद अवश्यंभावी है।
भावार्थ-सत् को एक कहने पर भी सत् लक्ष्य और उसका 'एक' लक्षण सिद्ध होता है। इसी प्रकार जीव को चित्स्वरूप कहने पर भी जीव लक्ष्य और उसका चित् लक्षण सिद्ध होता है। ऐसा लक्ष्य लक्षण रूप भेद व्यवहार नय का ही विषय हो सकता है निश्चय का नहीं। यदि निश्चय का भी भेद विषय माना जाय तो दोनों का एक विषय होने से संकरता हो जायेगी। तथा इस प्रकार निश्चय नय का अभाव होने से एक व्यवहार नय शेष रहता है। निरपेक्ष नय मिथ्या है अर्थात् निरपेक्ष नय कोई नय ही नहीं होता इस प्रकार व्यवहार का भी अभाव प्राप्त होने से सर्वशून्यता प्राप्त होती है।
लक्षणमेकस्य सतो यथाकथञ्चिद्यथा द्विधाकरणम ।
व्यवहारस्य तथा रस्यात्तदितरथा निश्चयस्य पुजः ॥ ६१४ ॥ अर्थ-व्यवहार नय का लक्षण यह है कि एक ही सत् का जिस किसी प्रकार दो रूप करना अर्थात् सत् में भेद बतलाना व्यवहार नय का लक्षण है ठीक इससे उलटा अर्थात् एक सत् को जिस किसी प्रकार दो रूप न करना निश्चय नय का लक्षण है अर्थात् सत् में अभेद बतलाना निश्चय नय का लक्षण है। इसलिए निश्चय नय को व्यवहार नय के समान उदाहरण सहित बतलाना ठीक नहीं है।
अथ चेत्सदेकमिति वा चिदेव जीवोऽथ निश्चयो वदति ।
व्यवहारान्तर्भातो भवति सदेकरय तद्विधापत्तेः 11 ६१५ ॥ अर्थ-फिर भी यदि शंकाकार के कथनानुसार सत् को एक माना जाय अथवा चित्ही जीव माना जाय और इनको निश्चय नय का उदाहरण कहा जाय तो इस प्रकार एक सत् को द्वैत भाव का प्रसंग आने से वह निश्चय नय व्यवहार में ही अन्तर्भाव (समावेश) हो जायेगा (व्यवहार नय से निश्चय नय में कुछ भी भेद नहीं रहेगा क्योंकि ये दोनों ही उदाहरण व्यवहार नय में ही गर्भित हो जाते हैं।
सत् को एक कहने से भी सत् में भेद ही सिद्ध होता है अथवा जीव को चित्स्वरूप कहने से भी जीव में भेद ही सिद्ध होता है। किस प्रकार ? सो कहते हैं:
एक सदुदाहरणे सलक्ष्य लक्षणं तदेकमिति ।
लक्षणलक्ष्यविभागो भवति व्यवहारतः स नान्यत्र ॥६१६॥ अर्थ-शंकाकार ने निश्चय नय का उदाहरण यह बतलाया है कि सत् एक है , इसमें ग्रन्थकार दोष दिखलाते हैं -सत् एक है यहाँ पर सत् तो लक्ष्य ठहरता है और उसका एक यह लक्षण ठहरता है किन्तु इस प्रकार लक्ष्य लक्षण का भेद व्यवहार नय में ही होता है निश्चय नय में नहीं होता।