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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अर्थाकृतिपरिणमनं ज्ञानस्य स्यात् किलोपयोग इति ।
नार्थाकृतिपरिणमनं तस्य स्यादनुपयोग एव यथा ॥ ६०४॥ अर्थ-तथा ज्ञान का पदार्थाकार परिणमन होना ही उपयोग कहलाता है और उस ज्ञान का पदार्थाकार परिणामन न होना अनुपयोग कहलाता है।
'नेति' निषेधात्मा यो नानुपयोगाः सबोधपक्षत्वात् ।
अकारेण बिजा 'नेति' निबेधावबोधशुन्यत्वात ।। ६०५॥ अर्थ-जब उपयोग अनुपयोग की ऐसी व्यवस्था है तब द्रव्यार्थिक नय में 'नेति' इत्याकारक जो निषेधात्मक बोध है वह भी निषेध ज्ञानरूप पक्ष से विशिष्ट होने से अनुपयोग नहीं कहा जा सकता किन्तु उपयोग ही है क्योंकि उपयोग उसी को कहते हैं कि जिस ज्ञान में पदार्थाकार परिणमन हो। यहाँ पर भी अर्धाकार परिणमन के बिना "नेति" इत्याकारक निषेधात्मक ज्ञान नहीं हो सकता है। परन्तु द्रव्यार्थिक नय में निषेधरूप बोध होता है। इसलिये निषेधाकार परिणमन होने से द्रव्यार्थिक नय भी उपयोगात्मक है और उपयोग को ही विकल्प कहते हैं।
भावार्थ६०३,६०४,६०५-यहाँ रागसहित के ज्ञानव्यापार को उपयोग तथा निर्विकल्प ( रागरहित)ज्ञान व्यापार को अनुपयोग कहा है। "जीव का गुण ज्ञान है"यह अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय का विषय है। ऐसा श्लोक ५३६ में कहा है। वहाँ वह विधिरूप विकल्यात्मक रागसहित ज्ञान है। व्यवहार नय प्रतिषेध्य है और निश्चय नय प्रतिषेधक
लए निश्चय नय"ज्ञान जीव का गुण है"इस विधि वाक्य का निषेध करके कहता है कि"जीव ज्ञान गुण जितना ही नहीं है।"उपयोगका अर्थ अथांकार अर्थतागसहित पदार्थ का जानने वाला ज्ञान व्यापार"यहाँसमझना। निश्चय नय के विषय का राग सहित ज्ञान करते "जीव ज्ञान गुण जितना ही नहीं है"ऐसा विकल्प उठता है। इसलिये यह नय निर्विकल्प नहीं है। उपयोग का अर्थ यह है कि एक पदार्थ से खिसक कर दूसरे पदार्थ की तरफ जो चैतन्य का व्यापार जाता है 'उपयोग कहते हैं। इसलिये उपयोग के समय राग अवश्य होता ही है। एक पदार्थ से खिसक कर दूसरे पदार्थ की तरफ (जाननेपने रूप) चैतन्य का व्यापार केवली भगवान के होता नहीं है इसलिये उनके उपयोग होता नहीं है। उनके 'उपयोग' मात्र उपचार से कहने में आता है। रागसहित ज्ञान व्यापार को सविकल्प उपयोग तथा रागरहित ज्ञान व्यापार को अनुपयोग यहाँ कहा है। निर्विकल्प ज्ञान छद्मस्थ को धर्म और शुक्लध्यान में होता है।
जीतो ज्ञानगुणः स्यादथालोक बिना जयो नासौ ।
नेति निधेषात्मत्वादलोक बिना नयो नासौ ॥६०६ ॥ अर्थ-जिस प्रकार जीव ज्ञान गुणवाला है, यह नय पदार्थ का प्रतिभास हुये बिना नहीं हो सकता, इसी प्रकार निषेधात्मक होने से 'नेति' ऐसे आकार वाला यह नय भी पदार्थ का प्रतिभास हुये बिना नहीं हो सकता ।
स यथा शक्तिविशेषं समीक्ष्य पक्षश्चिदात्मको जीवः ।
न तथेत्यपि पक्षः स्यादभिन्नदेशादिक समीक्ष्य पुनः ॥६०७॥ अर्थ-उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है:-जीव की विशेष शक्ति को अर्थात ज्ञान शक्ति को देखकर यह कहना या समझना कि "जीव चिदात्मक है"जिस प्रकार यह पक्ष है उसी प्रकार अभिन्न-देशादिक को देखकर अर्थात् जीव के अकेले ज्ञान गुण पर ध्यान न देकर सर्व गुणों को देखकर यह कहना या समझना"कि वैसा नहीं है"अर्थात् जीव अकेला मात्र ज्ञानगुणवाला ही नहीं है, यह भी तो पक्ष है। (पक्षग्राहिता उभयत्र समान है अतः दोनों नय हैं और विकल्पात्मक हैं।
भावार्थ-सारांश यह है कि "जीव ज्ञानगुणवाला है" इस व्यवहार नय में जिस प्रकार जीव के ज्ञान गुण के अवलम्बन से जीव को चिदात्मक कहा- यह पक्ष है उसी प्रकार निश्चय नय में "जीव अकेला मात्र ज्ञानगुणवाला ही नहीं है" इसलिये जीव के ज्ञान रूप विशेष गुण सिवाय 'सामान्य धर्म' को अवलम्बन करके जीव की मात्र ज्ञानात्मकता का निषेध करना-यह भी पक्ष है। जो अखण्ड का समर्थक है।
अर्थालोकतिकल्पः स्यादुभयनाविशेषलोऽपि यतः ।
न तथेत्यरय नयत्वं स्यादिह पक्षस्य लक्षकत्वाच्च ॥६०८॥ अर्थ-क्योंकि दोनों नयों में सामान्य रूप से अर्थ प्रतिभास रूप विकल्प है इसलिये"वैसा नहीं है"इत्याकारक निषेध पक्ष को विषय करने से निश्चय नय में नयपना है ही कारण उसने एक निषेध पक्ष का अवलम्बन किया है।