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________________ प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक १६७ राका भावार्थ-व्यवहार नय ने द्रव्य को सत्स्वरूप बतलाया है परन्तु निश्चय नय इसका निषेध करता है कि नहीं अर्थात् पदार्थ ऐसा नहीं है कारण कि सत् नाम अस्तित्व गुण का है। पदार्थ केवल अस्तित्व गुण स्वरूप तो नहीं है किन्तु अनन्त मुणात्मक है। इसलिये पदार्थ को सत'बतलाना ठीक नहीं है। इसलिये निश्चय नय उसका निषेध करता है। इसी प्रकार जीव को ज्ञानवान् कहना यह भी व्यवहार नय का विषय है। निश्चय नय इसका निषेध करता है कि नहीं अर्थात् जीव ऐसा नहीं है क्योंकि जीव अनन्त गुणों का अखण्ड पिण्ड है। इसलिये वे अनन्त गुण अभिन्न प्रदेशी हैं। अभिन्नता में गुण-गुणी का भेद करना ही मिथ्या है। इसलिए निश्चय नय उसका निषेध करता है। निश्चय नय व्यवहार के समान किसी पदार्थ का विवेचन नहीं करता है किन्तु जो कुछ व्यवहार नय से विवेचन किया जाता है अथवा भेद रूप जाना जाता है उस का निषेध करता है। इस प्रकार उसका वाच्यार्थ अभेद का समर्थन बैठता है। इसको नयाधिपति इसलिये कहा है कि भेद रूप कहने वाले सब झूठे हैं और सच्चा तो यह एक ही है जो अभेद रूप को अभेद रूप दर्शाता है तथा मोक्षमार्ग इसी के अधीन है। निश्चय नय विकल्पात्मक है इसकी सिद्धि ६०० से ६१० तक शंका ननु चोक्तं लक्षणगिह जयोऽरित सर्वोऽपि किल विकल्पात्मा । तदिह विकल्पाभावात् कथमस्य नयत्वमिदमिति चेत् ।। ६०० ॥ अर्थ-यह बात पहले ( ५०६ में) कही जा चुकी है कि सभी नय विकल्पात्मक ही होते हैं क्योंकि नय का लक्षण ही विकल्प है (फिर इस निश्चय नय में विकल्प तो कुछ पड़ता ही नहीं है क्योंकि उक्त नय केवल निषेधात्मक है) इसलिये विकल्प का अभाव होने से इस नय को नयपना ही कैसे आवेगा? अर्थात् इस नय में नय का लक्षण न होने से नयपना कैसे है? समाधान ६०१ से ६१० तक तन्न यलोऽस्ति नयत्वं 'नेति' यथा लक्षितस्य पक्षत्वात् । पक्षनाही च नयः पक्षस्य विकल्यमानत्वात् ॥ ६०१॥ अर्थ-उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है। निश्चय नय में नयपना है क्योंकि निश्चय नय में भी "नेति" (निषेधात्मक) यह पक्ष आता ही है वह निषेध ही उसका एक पक्ष है और पक्ष का ग्राहक ही नय होता है और पक्ष बिकल्पात्मक (राग सहित ) ही होता है। इसलिये विकल्प का अभाव बतलाकर निश्चय नय'को नय नहीं मानना युक्त नहीं है। भावार्थ-नय का लक्षण विकल्प बतलाया गया है। द्रव्यार्थिक नय में निषेध रूप विकल्प पड़ता ही है। अथवा किसी एक पक्ष के ग्रहण करने वाले ज्ञान को अथवा उसके वाचक वाच्य को भी नय कहते हैं। निश्चय नय में निषेध रूप पक्ष का ग्रहण होता है। जिस प्रकार व्यवहार नय किसी धर्म का प्रतिपादन करने से विकल्पात्मक है उसी प्रकार व्यवहार नय के विषयभूत पदार्थ को निषेध करने रूप का प्रतिपादन करने से निश्चय नय भी विकल्पात्मक ही है। इसलिये नय का लक्षण निश्चय नय में सुघटित ही है। पतिध्यो विधिरूपो भवति विकल्पः स्वयं विकल्पत्वात । प्रतिषेधको विकल्पो भवति तथा सः वय निषेधात्मा ।। ६०२॥ अर्थ-जिस प्रकार प्रतिषेध्य अर्थात् व्यवहार नय स्वयं विकल्पात्मक होने से विधि रूप विकल्प है। उसी प्रकार वह प्रतिषेधक अर्थात् निश्चय नय भी स्वयं निषेध रूप विकल्प है। ____ भावार्थ-जैसे प्रतिषेध्य में विधिरूप पक्ष होने से वह विकल्पात्मक है वैसे प्रतिषेधक में निषेधरूप पक्ष होने से वह भी विकल्पात्पक है। इसी का स्पष्टीकरण ६०३,६०४,६०५ तीन इकट्ठे तल्लक्षणमपि च यथा स्यादुपयोगो विकल्प एवेति । अर्थानुपयोगः किल वाचकं इह निर्विकल्पस्य 11 ६०३ ॥ अर्थ-प्रतिषेधक भी विकल्पात्मक है उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है:-पदार्थ का उपयोग ही तो विकल्प कहा जाता है तथा पदार्थ का अनुपयोग निर्विकल्प कहा जाता है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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