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________________ प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक १६५ ये सम्यक् मिथ्या कैसे होते हैं इसका उत्तर ५९०-९१ अपि निरपेक्षा मिथ्यास्ते एव सापेक्षका नया: सम्यक। अविनाभावत्वे सति सामान्यविशेषयोश्च सापेक्षात् ॥ ५९० ॥ अर्ध-वे परस्पर निरक्षेप रूप से विवक्षित होने पर मिथ्यानय कहे जाते हैं और वे ही परस्पर सापेक्ष रूप से विवक्षित होने पर सम्यक् ( सच्चे-समीचीन)नय कहे जाते हैं (क्योंकि पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है अतः सामान्य और विशेष इन दोनों में अविनाभाव होने से परस्पर सापेक्षता हैं। सापेक्षत्वं नियमादविनाभावस्त्वनन्यथासिद्धः । अविनाभावोऽपि यथा येन विना जायले ज तत्सिद्धिः ॥ ५९१ ॥ अर्थ-सापेक्षपना नियम से अविनाभाव को कहते हैं क्योंकि अविनाभाव के बिना सापेक्षत्व की सिद्धि नहीं हो सकती। अविनाभाव उसे कहते हैं कि जिसके बिना उसकी सिद्धि न हो। भावार्थ-सामान्य के बिना विशेष नहीं सिद्ध होता है और विशेष के बिना सामान्य नहीं सिद्ध होता है। अतएव इन दोनों में अबिनाभाव है। परस्पर अविनाभाव होने के कारण ही दोनों में सापेक्षता है। नयों के नाम क्या हैं इसका उत्तर ५९२ से ५९५ तक अस्त्युक्तो यस्य सतो यन्नामा यो गुणो विशेषात्मा । तत्पर्यायविशिष्टारत्तन्जामालो नया यथाम्जायात् ॥ ५९२ ॥ अर्थ-जिस द्रव्य का जिस-जिस नाम वाला जो-जो विशेष गुण कहा गया है उस-उस अंशविशिष्ट अर्थात् उसउस गुण को विषय करने वाला नय भी आगम के अनुसार उसी-उसी नाम से कहा जाता है। भावार्थ-इस प्रकार एक द्रव्य में जितने भी गणरूप अंश विवक्षित किये जाते वे जिस-जिस नाम वाले हैं उनउनको प्रतिपादन करनेवाले या जाननेवाले नय भी उन्हीं-उन्हीं नामों से कहे जाते हैं। दृष्टान्त-१ अस्तित्वं नाम गुण: स्यादिति साधारण: सतस्तस्य । तत्पर्यायश्च जयः समासतोऽस्तित्वनय इति वा ॥ ५९३ ।। अर्थ-जैसे उस सत् का अस्तित्व नाम का साधारण गुण है। इसलिये उस सत्के उस अस्तित्व अंशको विषय करने वाला नय भी संक्षेप से अस्तित्व नय कहलाता है। दृष्टांत-२ कर्तृत्वं जीवगुणोऽस्त्वथ वैभाविकोऽथवा भावः । तत्पर्यायविशिष्टः कर्तृत्वनयो यथा नाम ॥ ५९५ ॥ अर्थ-अब दूसरा उदाहरण दर्शाते हैं कि कर्तृत्व नाम के जीव का गुण है अथवा वैभाविक नाम के जीव का गुण है - इसलिए उस-उस गुण को विषय करने के कारण अपने-अपने नामानुसार कर्तृत्व नय अथवा वैभाविक नय कहा जाता है। अनया परिपाट्या किल जयचक्रं यावदस्ति बोद्वव्यं । एकैकं धर्म प्रति नयोऽपि चैकैकं एव भवति यतः ॥ ५९५ ॥ अर्थ-इसी परिपाटी से जितना भी नयचक्र है उसे जान लेना चाहिये; क्योंकि वस्तु के एक-एक धर्म (गुण) की अपेक्षा एक-एक ही नय होता है। ये सब व्यवहार नय ही हैं। सोदाहरणो यावान्त्रयो विशेषणतिशेष्यरूप: स्यात । व्यवहारापरनामा पर्यायार्थों जयो न दव्यार्थ ॥ ५९६ ॥ अर्थ-(ऊपर कहा हुआ) उदाहरण सहित जितना भी विशेषण विशेष्य रूप नय है वह सब पर्यायार्थिक नय है। उसी का दूसरा नाम व्यवहार नय है। उसको द्रव्यार्थिक नय नहीं कहते ।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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