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प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक
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चौथा नयाभास ५८५-५८६ अयमपि च नयाभासो भवति मिथो बोध्यबोधसम्बन्धः ।
ज्ञानं ज्ञेयताले वा ज्ञानगतं ज्ञेयमेतदेव यथा ॥ ५८५।। अर्थ-यह भी नयाभास है कि ज्ञान और जेय का परस्पर बोध्य-बोधक सम्बन्ध है अर्थात् ज्ञान ज्ञेयगत है और यह ज्ञेय भी ज्ञानगत है (ज्ञान ज्ञेय में चला जाता है या ज्ञेय ज्ञान में आ आता है ऐसा मानना नयाभास है)।
भावार्थ-जान का स्वभाव है कि वह हरएक पदार्थ को जाने परन्त किसी पदार्थ को जानता हवा भी वह सदा अपने ही स्वरूप में स्थिर रहता है। वह पदार्थों में नहीं चला जाता है और न वह उनका धर्म ही हो जाता है। तथा न पदार्थ का कुछ अंश ही ज्ञान में आता है। जो कोई इसमें विरुद्ध मानते हैं वे नयाभास अर्थात् मिथ्याज्ञान से ग्रसित हैं।
चक्षु रूपं पश्यति रूपगतं तन्न चक्षुरेव यथा ।
ज्ञानं ज्ञेयमवैति च ज्ञेयगतं वा न भवति तज्ज्ञानम् ॥ ५८६ ॥ अर्थ-जिस प्रकार चक्षु रूप को देखता है परन्तु वह रूप में चला नहीं जाता है अथवा रूप का वह धर्म नहीं हो जाता है किन्तु चक्षु चक्ष ही रहता है। उसी प्रकार ज्ञान ज्ञेयपदार्थ को जानता है परन्तु वह ज्ञान ज्ञेय में नहीं जाता है अथवा उसका धर्म नहीं हो जाता है किन्तु ज्ञान ज्ञान ही रहता है। उसी प्रकार जेय भी कहीं आँख में नहीं आ जाता है अथवा आँख का धर्म नहीं बन जाता है। ज्ञेय का फोटो भी नहीं आता है फिर ज्ञेय का आना तो कहाँ रहा। वह तो अपने स्वकाल की योग्यता से जानता है।
इत्याटिकाश्च बहवः सन्ति यथालक्षणा नयाभासाः ।
तेषामयमुद्देशो भवति विलक्ष्यो नयानयाभासः ॥ ५८७॥
कार ये चार नयाभास कहे। इनके अतिरिक्त और भी बहत से नयाभास हैं जोकि वैसे ही लक्षणों वाले हैं। उन सब नयाभासों का उद्देश्य (आशय) नय से विरुद्ध है । इसलिये वे नयाभास कहे जाते हैं। अर्थात् जीव का परद्रव्यों के साथ एक रूप सम्बन्ध बतलाने वाले सब कथन नयाभास हैं।
भावार्थ-नयों का जो स्वरूप कहा गया है उससे नयाभासों का स्वरूप विरुद्ध है। इसलिये जो समीचीन नय है उसे नय कहते हैं और मिथ्या नय को नयाभास कहते हैं।
नोट-५६५ से ५८७ तक नयाभासों का विषय ग्रन्यकार ने ज्यों का त्यों श्री समयसारजी गाथा ८४ से ८६ तक तथा गाथा ९८ से १०८ तथा उनके कलशों पर से लिया है।
५६६से ५८७ तक का सार
प्रथम नयाभास (१) जीव को वर्णादियुक्त मानना (५६३)। (२) मनुष्यादि शरीर हैं-वह ही जीव हैं, ऐसा मानना (५६७-६८)। (३) मनुष्य शरीर जीव के साथ एकक्षेत्रावगाह रूप से है, इसलिये एक है-ऐसा मानना (५६९)। (४) शरीर और आत्मा को बंध्य-बंधक भाव मानना (५७०) (५) शरीर और आत्मा को निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध प्रयोजनवान् नहीं हैं क्योंकि स्वयं और स्वतः परिणमित होने वाली वस्तु को पर के निमित्त से क्या लाभ? कोई लाभ नहीं (५७१ )।
दूसरा नयाभास (१) जीव और जड़ कर्म भित्र-भित्र द्रव्य होने से तथा उनके परस्पर गुणों का ( पर्यायों का) संक्रमण न हो सकने
से जीव कर्म नोकर्म (शारीरिक ज्ञानावरणादिक या किसी मूर्तिक वस्तु का कर्ता-भोक्ता नहीं हो सकता,तथापि
उसमें नय लागू करना वह नयाभास है - मिथ्या नय है ( ५७२)। (२) गुण संक्रमण बिना ही यदि आत्मा कर्मादि का कत्ता-भोक्ता हो तो सर्व पदार्थों में सर्वसंकर दोष तथा सर्वशून्य दोष आवेगा।
(५७३-५७४)