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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
सवेद्योदयभावान गृहधनधान्यं कलयपुत्राश्च ।
स्वयमिह करोति जीवो भनक्ति वा स एव जीवश्च ॥ ५८१॥ अर्थ-जैसे सातावेदनीय कर्म के उदय से होने वाले जो घर, धन, धान्य, स्त्री, आदिसजीव-निधि पदार्थ हैं उनको जीव ही स्वयं कर्ता है और वही जीव उनको भोक्ता है।
शंका ननु सति गृहवनितादौ भवति सुख प्राणिनामिहाध्यक्षात् ।
असति च तत्र न तदिदं तत्तत्कर्ता स एव तभोक्ता ॥ ५८२ ॥ शंका-यह बात प्रत्यक्ष देखते हैं कि घर स्त्री आदि के होने पर ही जीवों को सख होता है। उनके
दक हान पर ही जीवों को सुख होता है। उनके अभाव में उन्हें सुख भी नहीं होता। इसलिये जीव ही उनका कर्ता है और वही उनका भोक्ता है? भावार्थ-अपनी सुख सामग्री को यह जीव स्वयं करता है और स्वयं उसको भोगता है। ऐसा शंकाकार कहता है।
सत्यं वैषयिकमिदं परमिह तदपि न परत्र सायेक्षम् ।
सति बहिरर्थेऽपि यतः किल केषाञ्चिदसुवादिहेतुत्वात् ॥ ५८३॥ अर्थ-ठीक है इस जगत में यह संसारिक सुख केवल वैषयिक है अर्थात् विषयों में सुख की मात्र कल्पना अज्ञानियों ने करी है तो भी वह कल्पित सुख परविषयों की अपेक्षा से नहीं उत्पन्न होता है कारण कि निश्चय से वे बाह्य पदार्थ उपस्थित होने पर भी किसी के घर स्त्री वगैरह में दुःखादिक के कारण की कल्पना होती है। अतः व्यभिचार दोष है।
भावार्ध-क्योंकि धन, स्त्री आदि बाह्य पदार्थों के रहने पर भी वे किन्हीं के लिये दुःख के कारण भी देखे जाते हैं। वह व्यभिचारी दोष आने से तुम्हारी बात ठीक नहीं है।
इदमा तात्पर्य भवतु स कर्ताथ वा च मा भवतु ।
भोक्ता स्वस्य परस्य च यथाकथञ्चिच्चिदात्मको जीवः ||५८५॥ अर्थ-वह जीव स्व का कि परका कत्र्ता तथा भोक्ता हो कि नहो, परन्तु यहाँ तात्पर्य यह है कि जीव कोई प्रकार से ज्ञान स्वरूप ही है इसलिये ज्ञान सिवाय दुसरा कोई उसका कर्तव्य नहीं है। ___ भावार्थ-सारांश यह है कि अज्ञानियों की व्यवहार में जीव पर पदार्थों का कर्ता-भोक्ता कहलाय या न कहलाय, उससे हमको कुछ प्रयोजन नहीं है, परन्तु यहाँ भेदविज्ञान कराने का प्रयोजन होने से हमको तो मात्र इतना ही कहना है कि जीव हर प्रकार से ज्ञान स्वरूप ही है। जीव की सब पर्यायें कभी अपने चैतन्यपने को छोड़ती नहीं है। इसलिये वास्तविकपने आत्मा के निज भावों का कर्ता आत्मा ही है और कर्ता की तरह निज भावों का भोक्ता भी आत्मा ही है। पर का न कता है न भोगता है। जीव परपदार्थों का कर्ता-भोक्ता हो कि न हो ऐसा कहा है। इससे यह बात शंका में छोड़ी है यह न समझना। यहाँ तो जीव को ज्ञान स्वरूप कह कर स्व के व पर के कर्ता-भोक्तापने का विकल्प तक भी छुड़ाया है। ग्रन्थकार ने यह श्लोक श्री समयसारजी कलश नं. २०९ पर से लिया है ठीक ज्यों का त्यों वही भाव है। अधिक जानने की इच्छा हो तो उस कलश को देखिये। विशेषतया पं. राजमल कृत हिन्दी कलश टीका देखिये। नोट-दूसरे-तीसरे नयाभास का उपादेय तत्त्व निम्नलिखित हरिगीत में पाठकों के विनोदार्थ लिखा गया है
अज्ञान तक तो आत्मा अज्ञानमय भावो करे। अरु उन हि निज अज्ञानकुत भावों को भोगा भी करे।। ज्ञानी हुवा जब आत्मा तब ज्ञानमय भावो करे। अरु उन हि निज के जानकृत भावों को भोगा भी करे। दोनों दशा में आत्मा निज को करे अरु भोगवे। परद्रव्यकृत तो कोई पदों को करे ना भोगवे॥ वस्तु का ऐसा ध है इसको ही निश्चय जिन कहें। हैं अटल वस्तु नियम ये, रे शिष्य यूं तू जान ले।।