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प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक
पुद्गल का कर्तृत्व माना जाय तो सभी एक-दूसरे के कर्ता हो सकते हैं। ऐसी अवस्था में धर्मादि द्रव्यों का भी जीव में कर्तुत्व सिद्ध होगा।
अस्त्यत्र अमहेतु वस्याशुद्धपरिणति प्राप्य ।
कर्मत्वं परिणमते स्वयमपि मर्तिमयलो द्रव्यम् ॥ ५७५ ॥ अर्थ-जीवकोकाकर्ता है इस भ्रमका कारण भी यह है कि जीव की अशद्धपरिणति के निमित्त से पद . कामण वर्गणा स्वयं ( उपादान) कर्मरूप परिणत हो जाती हैं।
भावार्थ-जीव के राग-द्वेष-मोह भावों के निमित्त से कार्मण वर्गणा स्वयं कर्मपर्याय को धारण करती हैं इसलिये उनमें जीवकर्तृता का भ्रम होता है। भाव यह है कि कार्मण वर्गणायें कर्मरूप परिणमन तो अपनी परिणमन शक्ति के कारण स्वकाल की योग्यता से करती हैं। इसलिये जीव उनका रंचमात्र कर्ता नहीं है पर क्योंकि जीव का राग उनको निसकार से उपसिनी जीवो भ्रम होने लगता है कि यह जीव के राग ने बनाई या स्वयं जीव ने बनाई।
इदमत्र समाधान कर्ता यः कोपि सः स्तभावस्य ।
परभावस्य न कर्ता भोक्ता वा तनिमित्तमात्रेऽपि ॥ ५७६ ॥ अर्थ-उस भ्रम का समाधान यह है कि जो कोई भी कर्ता होगा वह अपने भाव का ही कर्ता होगा। परभाव का निमित्तमात्र होने पर भी कोई परभाव का कर्ता अथवा भोक्ता नहीं हो सकता है। ___ भावार्थ-भाव यह है कि जीव को उसे अपने राग भाव का कर्ता कह भी सकते हैं पर कर्मों का कर्ता तो उसे भी नहीं कह सकते हैं। उस प्रकार दुःख-सुख भावों का भोगता तो कह सकते हैं पर कर्म का या परवस्तु का भोगता तो नहीं कह सकते।
दष्टान्त भवति स यथा कुलाल: कर्ता भोक्ता यथात्मभावस्य ।
न तथा परभावस्य च कर्ता भोक्ता कदापि कलशस्य ॥ ५७७ ।। अर्थ-कुम्हार सदा अपने भाव का ही कर्ता-भोक्ता होता है वह पर भाव रूप कलश का कर्ता-भोक्ता कभी नहीं होता।
सदभिज्ञानं च यथा भवति घटो मृत्तिकारखभावेन 1
अति मृण्मयो घटः स्यान्न स्यादिह घटः कुलालमय: ॥ ५७८॥ अर्थ-कुम्हार कलश का कर्ता क्यों नहीं है इस विषय में यह दृष्टान्त प्रत्यक्ष है कि घद मिट्टी के स्वभाव वाला होता है अथवा मिट्टी स्वरूप ही वह होता है परन्तु घट कभी कुम्हार के स्वभाव वाला अथवा कुम्हार स्वरूप नहीं होता।
भावार्थ-जब घट के भीतर कुम्हार का एक भी गुण नहीं पाया जाता तब कुम्हार ने घट का क्या किया? कुछ नहीं।
अथ चेद्घटक सौ घटकारी जनपदोक्तिलेशोऽयम् ।
दुर्वारो भवतु तदा का नो हानिर्यदा नयाभासः ॥ ५७९॥ अर्थ-यदि यह कहा जाय कि लोक में यह व्यवहार होता है कि घटकार (कम्हार) घट का बनाने वाला है। सो क्यों ? ग्रन्थकार कहते हैं कि उस व्यवहार को होने दो, उससे हमारी कोई हानि नहीं है परन्तु उसे नयाभास समझो।
तीसरा नयाभास ५८० से ५८४ तक अपरे बहिरात्माजो मिथ्यावाद वदन्ति टर्मतयः ।
यदबद्वेऽपि परस्मिन् कर्ता भोक्त परोऽपि भवति यथा ।। ५८०॥ अर्थ-और भी खोटी बद्धि के धारण करने वाले मिथ्यादष्टि परुष मिथ्या बातें कहते हैं जैसे-जो पर पदार्थ सर्वथा दूर है। जीव के साथ जो बंधा हुआ भी नहीं है उसका भी जीव क-भोक्ता होता है,ऐसा वे कहते हैं।