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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
तद्वादोऽथ यथा स्याज्जीवो वर्णादिमानिहास्तीति ।
इत्युक्ते न गुणः स्यात् प्रत्युत रोषस्तदेकबुद्धित्तात् ॥ ५५५ ॥ अर्थ-उस नयाभास का कथन इस प्रकार होता है जैसे "जीव वर्णवाला है"अर्थात् गोरा है, काला है ऐसा कहने पर कोई लाभ नहीं है उलटा दोष है क्योंकि उससे जीव और पुद्गल में एकत्वबुद्धि होने लगती है ( और ऐसी बुद्धि का होना ही मिथ्यात्व है।
शंका ननु किल वस्तुविचारे भवतु गुणो वाथ दोष एव यतः ।
न्यायबलाटायातो दुर्वार: स्यान्नयप्रवाहश्च ।। ५५६ ॥ शंका-वस्तु के विचार (समय) में लाभ हो या दोष हो(अर्थात् जो वस्तु जिस रूप में है वह सिद्ध हो चाहे उसकी यथार्थ सिद्धि में दोष आवे या गुण)! नयों का प्रवाह न्याय बल से प्राप्त हुआ है इसलिये वह दूर नहीं किया जा सकता?
भावार्थ-जीव को वर्णादिमान् कहना भी एक नय है। इस नय की सिद्धि में जीव और वर्णादि में एकता भले ही प्रतीत हो, परन्तु उसकी सिद्धि आवश्यक है? ऐसा शंकाकार कहता है।
समाधान ५५७ से ५६३ तक सत्यं दर्वार: स्यान्नयप्रवाहो यथाप्रमाणाद्वा ।
दुर्वारश्च तथा स्यात सम्यडा मिथ्येति जयविशेषोऽपि ॥५५७॥ अर्थ-यह बात ठीक किया प्रवाह अनिवार्य रजननसाचही यह भी अनिवार्य है कि वह प्रमाणाधीन हो तथा कोई नय समीचीन (यथार्थ) होता है कोई मिथ्या होता है यह नयों की विशेषता भी अनिवार्य है । जैसे
अर्थविकल्पो ज्ञानं भवति तदेकं विकल्पमात्रत्वात ।
अस्ति च सम्यग्ज्ञानं मिथ्याज्ञानं विशेषविषयत्वात् ।। ५५८ ॥ अर्थ-ज्ञान अर्थविकल्पात्मक होता है इसलिये ज्ञान सामान्य की अपेक्षा से ज्ञान एक ही है। यद्यपि अर्थविकल्पता सभी ज्ञानों में है परन्तु विशेष २ विषयों की अपेक्षा से उसी ज्ञान के दो भेद हो जाते हैं ( १) सम्यग्ज्ञान ( २ ) मिथ्याज्ञान।
तत्रापि यथावस्तु ज्ञानं सग्यविवशेष हेतुः स्यात् ।
अथ चेदयथावस्तु ज्ञानं मिथ्याविशेषहेतुः स्यातु || ५५९॥ अर्थ-उन दोनों ज्ञानों में सम्यग्ज्ञान का कारण वस्तु का यथार्थ ज्ञान है तथा मिथ्याज्ञान का कारण वस्तु का अयथार्थ ज्ञान है।
भावार्थ-जो वस्तु ज्ञान में विषय पड़ी है उस वस्तु का वैसा ही ज्ञान होना जैसी कि वह है उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं जैसे किसी के ज्ञान में चांदी विषय पड़ी हो तो चांदी को चांदी ही वह समझे तब तो उसका वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है
और यदि चांदी को वह ज्ञान सीप समझे तो वह मिथ्याज्ञान है। जिस ज्ञान में वस्तु तो कुछ और ही पड़ी हो और ज्ञान दूसरी ही वस्तु का हो उसे मिथ्याज्ञान कहते हैं। इस प्रकार विषय के भेद से ज्ञान के भी सम्यक भेद हो जाते हैं उसी प्रकार
ज्ञानं यथा तथासौ जयोऽस्ति सर्वो विकल्पमात्रत्वात ।
तत्रापि नयः सम्यक तदितरथा स्यान्जयाभासः ॥ ५६० ॥ अर्थ-जिस प्रकार ज्ञान है उसी प्रकार नय भी है अर्थात् जैसे सामान्य ज्ञान एक हैं वैसे सम्पूर्ण नय भी विकल्पमात्र होने से सामान्य रूप से एक हैं और विशेष की अपेक्षा से ज्ञान के समान नय भी सम्यक-नय और मिथ्यानय ऐसे दो भेद वाले हैं। जो सम्यकनय हैं उन्हें नय कहते हैं। जो मिथ्यानय हैं उन्हें नयाभास कहते हैं।
नयों की कसौटी (करणसूत्र) तद्गुणसंविज्ञानः सोदाहरणः सहेतुरथ फलतान् ।
यो हि जयः स नयः स्याद्विपरीतो जयो नयाभासः ॥ ५६१॥ अर्थ-(निश्चय से जो नय तद्गुणसंविज्ञान है अर्थात विवक्षित वस्त के गणों को उसी का ज्ञान कराने वाला है। जीव के भाव वह जीव के तद्गुण हैं और पुद्गल के भाव वे पुद्गल के तद्गुण हैं ऐसा ठीक-ठीक ज्ञान कराता