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ग्रञ्चराज श्री पञ्चाध्यायी
अब आप कहेंगे यहाँ तो 'नहीं' रूप की गाथा है आपने 'हां' रूप कैसे अर्थ कर दिया है। इसका उत्तर यह है कि यहाँ निश्चय नय का कथन चला आ रहा है। निश्चय नय"नेति" को कहते हैं अर्थात् व्यवहार का प्रतिषेधक निश्चय है और व्यवहार प्रतिषेध्य है। ऐसा लक्षण स्वयं भी समयसारजी गाथा २७२ मुल में ने उसका स्पष्टीकरण गाथा २७२ से २७७ तक किया है। वहाँ स्पष्ट यह लक्षण बांधा गया है। इस प्रकार श्रीकुन्दकुन्द भगवान गाथा ६ में कहते हैं कि असद्भुत व्यवहार नय जो आत्मा को प्रमत्त अप्रमत्त रूप स्थापित करता है पर निश्चय से आत्मा वैसा नहीं है। तथा गाथा ७ में कहते हैं कि सद्भुत व्यवहार नय जो आत्मा को पर्याय स्वभाव वाला कहता है निश्चय से वैसा ही आत्मा नहीं है। श्रीकुन्दकुन्द भगवान के सूत्र ग्रन्थ हैं। उन्होंने दो गाथा में ही व्यवहार का पूर्ण स्वरूप कहकर वह प्रतिषेध्य है,हेय है, मोक्षमार्ग में कार्यकारी नहीं है यह भी कह दिया और इन्हीं दो गाथाओं में निश्चय नय प्रतिषेधक है, उपादेय है- वह एक ही कार्यकारी है यह भी स्पष्ट उल्लेख कर दिया है।
ग्रन्थराज के कर्ता श्री पंचाध्यायीकार ने वैसे तो सारा ग्रन्थ ही श्रीकुन्दकुन्द भगवान के वक्तव्य से निकाला है पर ये चार नय ही व्यवहार नय हैं ऐसा उपर्युक्त दो गाथा ( आगम आधार) से निकाली गई हैं। दो द्रव्य के सम्बन्धको बतलाने वाली नय नहीं हैं किन्तु नयाभास हैं। इसके श्रीसमयसारजी में निम्न प्रकरण हैं-(१) गाथा ८४ में शंकाकार ने दो द्रव्यों को व्यवहार नय की स्थापना की है। उसको गाथा ८५-८६ में खण्डन किया है।(२)गाथा ९८ में शंकाकार ने दो द्रव्यों को व्यवहार नय की स्थापना की है। उसका ९९ से १०८ तक खण्डन किया है। उपर्युक्त गाथा के आधार पर ही श्री पञ्चाध्यायीकार ने आगे श्लोक ५५२ से ५८७ तक की रचना की है जिसमें दो द्रव्यों का कोई भी संबन्ध मानने वालों का या उन्हें नय कहने वालों का टाकरखाइन क्रिम है और हमें अननसंगारी मिथ्यादष्टि कहा है। पञ्चाध्यायीकार ने श्रीसमयसारजी में से किस प्रकार ये चार व्यवहार नय निकाले हैं इसके लिए विशेष जानने की इच्छा तो पूर्वप्रकाशित मासिक पत्र आत्मधर्म पढ़िये। सद्गुरुदेव श्री कानजी महाराज ने अपने प्रवचनों में विशद रूप से स्पष्ट किया है। अन्य ग्रन्थों में जो एक द्रव्य के राग परिणमन को निश्चय कहा है वह केवल कथन शैली का अन्तर है, भाव का नहीं, वास्तव में वह व्यवहार नय ही है। निश्चय नय तो सामान्य द्रव्य को दिखाता है। वह एक ही प्रकार का होता है उसमें भेद नहीं है। ___ अन्य ग्रन्थों में जो दो द्रव्यों के सम्बन्ध में व्यवहार नय का कथन है वह उपचार मात्र है। सिद्धान्त ग्रन्थों की ऐसी ही विवेचन की पद्धति है। इसका कारण यह है कि सिद्धान्त छः द्रव्यों का और उनके परस्पर निमित्त-नैमित्तक सम्बन्ध का कथन करता है। उस निमित्त-नैमित्तक सम्बन्धका पर्यायवाची नाम ही सिद्धान्त में व्यवहारनय है। पर उनका यह कदापि आशय नहीं कि एक द्रव्य का कर्तृत्व कुछ दूसरे द्रव्य में चला जाता है। ग्रन्थकार ने आगे ऐसे न हेतु-दष्टान्त कहने की स्वयं श्लोक ५६३ में प्रतिज्ञा करके-उनका निरूपण करके सयुक्तिक नयाभास सिद्ध किया है। आगे यह विषय आपको स्पष्ट हो जायेगा। बड़े ध्यान से पढ़ने का है अन्यथा दो द्रव्यों की एकात्वबुद्धि रूप मिथ्यात्व बना ही रहेगा।
व्यवहार नय का कथन समाप्त हुआ।
तीसरा अवान्तर अधिकार सम्यक् नय और मिथ्या नय के परखने की कसौटी अथवा नयाभासों की भूमिका ५५२ से ५६५ तक
शंका ननु चासद्भूतादिर्भवति स यत्रेत्यतद्गुणारोपः ।
दृष्टांतादपि च यथा जीवो वर्णादिमानिहारित्वति चेत् ॥ ५५२॥ शंका-असद्भुत व्यवहार नय वहाँ पर प्रवृत्त होता है जहाँ एक वस्तु के गुण दूसरी वस्तु में आरोपित किये जाते हैं। दृष्टांत जैसे जीव को वर्णादिवाला कहना । क्या ऐसा मानें तो ठीक है?