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प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक
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व्यक्त (लक्ष में आये हुये) और अव्यक्त (लक्ष में नहीं आवे) ऐसे दो प्रकार के विभाव भाव आगमनशील भाव औपचाधिक भाव हैं । इन दोनों नयों द्वारा उन दोनों भावों को ख्याल में लेकर इनको हेय रूप मानना - श्रद्धान करना यही इन दोनों नयों का प्रयोजन है - फल है।
श्लोक नं. ५३५ से ५५१ तक का सार १. उपचरितसद्भुत व्यवहार नय:-"ज्ञान परको जानता है"-ऐसा कहना अथवा तोजान में रागजात होने से"राग)
का ज्ञान है" - ऐसा कहना, अथवा ज्ञाता स्वभाव के भानपूर्वक ज्ञानी "विकार को भी जानता है"-ऐसा कहना)
उपचरित सद्भुत व्यवहार नय का कथन है। २. अनुपरित सद्भूत व्यवहार नयः-ज्ञान और आत्मा इत्यादि गुण-गुणी के भेद से आत्मा को जानना वह अनुपचरित )
सद्भुत व्यवहार नय है। ३. उपचरित असद्भुत व्यवहार नयः-साधक ऐसा जानता है कि अभी मेरी पर्याय में विकार होता है। उसमें जो व्यक्त
रागबुद्धिपूर्वक का राग-प्रकट ख्याल में लिया जा सकता है ऐसे बुद्धिपूर्वक के विकार को आत्मा का जानना।
यह उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। ४. अनुपचरित असद्भुत व्यवहार नय:- जिस समय बुद्धिपूर्वक का विकार है उस समय अपने ख्याल में न आ ।
सके-ऐसा अबुद्धिपूर्वक का विकार भी है। उसे जानना वह अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय है।
शंका-किसी को ऐसी शंका हो सकती है कि व्यवहार नयों का ऐसा स्वरूप किसी अन्य ग्रंथ में (आगम में ) नहीं कहा गया है तथा किसी को यह भी शंका हो सकती है कि एक वस्तु में होने वाली नयों को तो निश्चय नय कहते हैं। व्यवहार नय तो दो द्रव्यों में हुआ करती हैं। उस व्यबहार नय को ग्रंथकार ने नयाभास बतलाया है। समाधान-आपकी दोनों बातें ठीक हैं। उनका समाधान शान्तिपूर्वक सुनिये। निम्न प्रकार है:
चालिस अध्यात्म दधि की है और अध्यात्म के ग्रंथराज श्री समयसारजी में से निकाली गई है। कहीं और किस प्रकार देखिये श्री समयसारजी गाथा ६ में कहा है:--
णति होदि अय्यमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो ।
एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सो उ सो चेत ॥६॥ अर्थ -जो ज्ञायक भाव है वह अप्रमत्त भी नहीं है और प्रमत्त भी नहीं है। इस प्रकार उसे शुद्ध कहते हैं और जो ज्ञायक रूप से ज्ञाता हुआ, वह तो वही है, अन्य कोई नहीं।(१) अप्रमत्त को अबुद्धिपूर्वक राग कहते हैं। अबुद्धिपूर्वक राग को आत्मा का जानना यह तो आपकी अनुपचरित असद्भुत व्यवहार नय रही। (२) प्रमत्त को बुद्धिपूर्वक राग कहते हैं। बुद्धिपूर्वक राम को आत्मा का जानना यह आपकी उपचरित असदभुत व्यवहार नय रही।
आगे चलिये-गाथा ७ में कहा है:ववहारेणुवदिस्सइ णाणिरस चरित्तदंसणं णार्ण।
णविणाणं ण चरित्रंण दंसणं जाणगो सुद्धो ॥ ७ ॥ अर्थ-जानी के चारित्र, दर्शन, ज्ञान ये तीन भाव व्यवहार से कहे जाते हैं। निश्चय से ज्ञान भी नहीं है, चारित्र भी नहीं है। और दर्शन भी नहीं है। ज्ञानी तो एक ज्ञायक शुद्ध ही है।(३) आत्मा, दर्शन, ज्ञान, चारित्र अपूर्ण पर्यायवालाजीव कहना यह आपकी उपचरित सद्भुत व्यवहार नय है। (४)आत्मा अपने दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप है यह आपकी अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नय है। सद्भुत व्यवहार नय के दोनों भेद गाथा नं.७ में से निकाले हैं और असदभुत च्यवहार नय के दोनों भेद गाथा ६ में से निकाले हैं।
भावार्थ---गण भेद से अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नय और स्वभाव पर्याय भेद से उपचरित सद्भुत - व्यवहार नय कहना यहाँ मान्य नहीं है। किन्तु गुण और स्वभाव पर्याय दोनों को परनिरपेक्ष स्वसम्बन्धी कहना यहाँ इष्ट हैं। अर्थात गुण जीव के ही है-ऐसा कहना अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नय है जैसे जीव का ज्ञान गुण और ज्ञान को स्वपर प्रकाशक पर्याय रूप कहना अर्थात पर सम्बन्ध वाला ज्ञान कहना उपचरित सद्भुत व्यवहार नय है जैसे अथवा घटपट आदिक को जानता है- ऐसा कहना।