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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अनुपरिट असद्भूत व्यवहार नय के जानने का फल फलमागन्तुकभावाः स्वपरनिमित्ता भवन्ति यावन्तः । क्षणिकत्वान्नादेया इति बुद्धिः स्यादनात्मधर्मत्वात् ॥ ५४८ ॥
अर्थ-अपने और पर के निमित्त से होने वाले जितने भी आये हुये भाव (विभाव भाव) हैं वे सब आत्मा के धर्म न होने से क्षणिक हैं और क्षणिक होने से ग्रहण योग्य नहीं है ऐसी बुद्धि का होना ही इस नय का फल है। अर्थात् राग में है बुद्धि होना इस का फल है।
उपचरित असद्भूत व्यवहार नय का वर्णन ( ५४९ से ५५१ तक ) उपचरित असद्भूत व्यवहार नय का लक्षण
उपचरितोऽसद्भूतो व्यवहाराख्यो नयः स भवति यथा ।
क्रोधाद्याः औदयिकाश्चितश्चेद्बुद्धिजा विवक्ष्याः स्युः ॥ ५४२ ॥
अर्थ- जो बुद्धिपूर्वक होने वाले औदयिक क्रोधादिक भाव जीव के विवक्षित किये जायें तो जो उपचरित असद्भूत व्यवहार नाम का नय है वह हो जाता है अर्थात् बुद्धिपूर्वक राग को जीव का कहना उपचरित असद्भूत व्यवहार नय का लक्षण है।
भावार्थ- वास्तव में औदयिक भाव क्रोधादिक जीव का स्वरूप नहीं इतना अंश तो असद्भूत का है तथा बुद्धि में जानने में आता है- व्यक्त है इसलिये वह उपचार योग्य होने से उपचरित भेद रूप प्रवृत्ति व्यवहार । इस प्रकार उपचरित असद्भूत व्यवहार नय हुआ ।
उपचरित असद्भूत व्यवहार नय की प्रवृत्ति में कारण बीजं विभावभावा: स्पपरोभयहेतवस्तथा नियमात्
सत्यपि शक्तिविशेषे न परनिमित्ताद्विना भवन्ति यतः ॥ ५५० ॥
अर्थ - और इस की प्रवृत्ति में कारण यह है कि जितना भी विभाव भाव हैं वे नियम से स्व और पर दोनों के कारण से होते हैं क्योंकि द्रव्य में विभाव रूप से परिणमन करने की शक्ति विशेष के रहते हुये भी वे भाव पर निमित्त के आश्रय किए बिना नहीं होते हैं अर्थात् आत्मा के गुणों का पुद्गल कर्म को निमित्त बनाकर वैभाविक रूप होना ही उपचरित असद्भूत व्यवहार नय का कारण हैं।
भावार्थ- पर निमित्त बिना विभाव भाव होते नहीं हैं इस नय द्वारा ऐसा ज्ञान होने पर भव्य जीव निमित्त ऊपर की राग को उत्पन्न करने वाली पराश्रित बुद्धि छोड़कर स्वाश्रित दृष्टि कर लेता है। राग निमित्त बिना नहीं होता है इसका यह अर्थ नहीं कि निमित्त जीव को जबरदस्ती राग कराता है किन्तु इसका अर्थ यह कि जब जीव राग करता है तो उसमें कर्म निमित्त पड़ता ही है। आत्मा निमित्त में जुड़े बिना राग नहीं कर सकता।
उपचरित असद्भूत व्यवहार नय के जानने का फल तत्फलमतिनाभावात्साध्यं तदबुद्धिपूर्वका भावाः ।
तत्सत्तामात्रं प्रति साधनमिह बुद्धिपूर्वका भावाः ॥ ५५१ ॥
अर्थ - जहाँ बुद्धिपूर्वक राग भाव होता है वहाँ अबुद्धि पूर्वक होता ही है। ऐसा बुद्धिपूर्वक भावों का अबुद्धिपूर्वक भावों के साथ अविनाभाव है। अविनाभाव होने से अबुद्धिपूर्वक भाव साध्य हैं और उनको सत्ता सिद्ध करने के लिये साधन बुद्धिपूर्वक भाव हैं। इस प्रकार इस बात को बतलाना ही इस नय का फल है। अर्थात् बुद्धिपूर्वक भावों से अबुद्धिपूर्वक भावों का परिज्ञान करना ही इस ज्ञान का फल है।
भावार्थ-इस नय के ज्ञान द्वारा जीव जान लेता है कि अबुद्धिपूर्वक राग की सत्ता आत्मा में है। अबुद्धिपूर्वक अव्यक्त क्रोधादिक भावों की तो केवल सत्ता मात्र की ही प्रतीति होती है परन्तु वे अनुभव में नहीं आते। इनका निर्णय बुद्धिपूर्वक राग से अविनाभाव के कारण ज्ञानी कर लेते हैं। वर्तमान उपयोग में पकड़े हुआ बुद्धिपूर्वक कषाय अंश द्वारा वर्तमान उपयोग में नहीं पकड़ में आने वाले अबुद्धिपूर्वक कषाय अंश को साध्य बनाकर इन दोनों का आत्मा में नकार करना यही इन दोनों नयों के जानने का फल है। उपचरित असद्भूत तथा अनुपचरित असद्भूत ये दोनों एक ही समय के