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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
उपचरितसद्भूत व्यवहार नय का उदाहरण अर्थविकल्पो ज्ञानं प्रमाणमिति लक्ष्यतेऽधुनापि यथा ।
अर्थ: स्वपरनिकायो भवति विकल्पस्तु चित्तदाकारं ॥४१॥ अर्थ-जैसे अर्थ विकल्पात्मक ज्ञान प्रमाण है। यह प्रमाण का लक्षण है सो यह उपचरित सद्भुत व्यवहार नयका उदाहरण है। यहाँ पर अर्थ नामज्ञान और परपदाथा समुदायका विकरप नाम ज्ञान का उस आकार रूप होना है अर्थात् स्व पर का ज्ञान होना ही प्रमाण है।
भावार्थ-ज्ञान अपने स्वरूप को जानता हुआ ही पर पदार्थों को जानता है यह उसकी प्रमाणता का हेतु है। स्व पर पदार्थों का निश्चयात्मक बोध ही प्रमाण कहलाता है और यह ज्ञान की विकल्पात्मक (ज्ञेयाकार) अवस्था है। यहाँ पर ज्ञान का स्वरूप उसके विषयभूत पदार्थों के उपचार से सिद्ध किया जाता है परन्तु ज्ञेयाकार रूप ज्ञान को जीव का ही गुण बतलाया गया है। इसलिये यह उपचरित सद्भुत व्यवहार नय का विषय है। ज्ञान का यह लक्षण पर्याय की मुख्यता से है। गुण की अपेक्षा तो 'शुद्ध ज्ञान' कहा जाता है। इस लक्षण में क्योंकि ज्ञेयाकार ज्ञान का लक्षण कहा जाता है। उसे सुनकर ऐसा प्रतिभास सा होता है कि ज्ञान पराश्रित हो। वास्तव में ऐसा है नहीं क्योंकि यहाँ तो केवल पर से उपचार किया है और उपचार करने का कारण भी यह है कि बिना विषय के ज्ञान का निरूपण कैसे करें। इस उदाहरण के अनुसार "ज्ञानप्रमाण है" इतना तो सद्भूत व्यवहार का उदाहरण ठहरता है और उसे अर्थविकल्पात्मक कहना यह उपचार ठहरता है। यद्यपि ज्ञान स्वरूपसिद्ध है तथापि उसे अर्थविकल्पात्मक बतलाया जाता है इसलिये वह उपचारित सद्भुत व्यवहार नय का उदाहरण हुआ।
उपचरितसद्भुत व्यवहार नय की प्रवृत्ति में कारण ५४२-४३-४४ असदपि लक्षणमेतत्सन्माचत्वे सुनिर्विकल्पत्वात् ।
तदपि न बिजालम्खान्तिर्विषयं शक्यते तवतुम ॥ ५४२॥ अर्थ-ज्ञान यद्यपि निर्विकल्पक होने से सन्मात्र है इसलिये उपर्युक्त विकल्प स्वरूप लक्षण उसमें नहीं जाता है तथापि वह बिना अवलम्बन के निर्दिषय नहीं कहा जा सकता है इसलिए इस नय के आश्रय से ऐसा कहना पड़ता है।
सरमादनन्यशरणं सदपि ज्ञाने स्वरूपसिद्धत्वात् ।
उपचरितं हेतुबशात तदिह ज्ञान तटन्यशरणमिव ॥ ५४३॥ र्थ-इसलिये यद्यपि ज्ञान दूसरों की अपेक्षा किये बिना ही स्वरूप सिद्ध होने से सतरूप है अर्थात ज्ञान अपने स्वरूप से स्वयं सिद्ध है। अतएव वह अनन्यशरण ( उसका वही अवलम्बन) है तो भी हेतु वश वह ज्ञान अन्यशरण के समान उपचरित होता है परत: सिद्ध वही हो सकता है जो स्वत: सिद्ध है किन्तु निरूपण करने में ज्ञान को अन्य सापेक्ष जैसा दिखाना पड़ता है। अनन्य शरण बताना है।
हेतुः स्वरूपसिद्धि बिना न परसिद्धिरप्रमाणत्वात् ।
तदपि च शक्तिविशेषाद् दव्यतिशेष यथाप्रमाणं स्यात् ॥ ५४४॥ अर्थ-ऐसा होने में कारण भी यह है कि स्व-रूप सिद्धि के बिना पर रूप से सिद्धि अप्रमाण ही है अर्थात ज्ञान 'स्वरूप से सिद्ध है तभी वह पर से भी सिद्ध माना जाता है। ज्ञान स्वरूप से सिद्ध है इसमें कारण यह है कि वह द्रव्य विशेष ( जीव द्रव्य ) में गुण विशेष है। यह बात प्रमाणपूर्वक सिद्ध है।
भावार्थ-'अर्थविकल्पो ज्ञानं प्रमाणं' अर्थात् स्व-पर पदार्थ का बोधही प्रमाण है। ऐसा ऊपर कहा गया है। इस कथन में ज्ञान में प्रमाणता पर से लाई गई है। परन्तु पर से प्रमाणताज्ञान में तभी आ सकती है जबकि यह अपने स्वरूप से सिद्ध हो, इसी बात को यहाँ पर स्पष्ट किया गया है कि ज्ञान अपने स्वरूप से स्वयं सिद्ध है कारण कि वह जीव द्रव्य का विशेष गुण है। स्वयं सिद्ध होकर ही वह पर से उपचरित कहा जाता है।
उपचरितसद्भुतव्यवहारनय के जानने का फल अर्थों ज्ञेयज्ञायकसंकरदोषधमक्षयो यदि वा |
अविनाभावात साध्यं सामान्य साधको विशेष: स्याल || ५४५॥ अर्थ-उपचरित सद्भुत व्यवहार नय का यह फल है कि ज्ञेय और जायक में अर्थात ज्ञान और पदार्थों में संकर दोष न उत्पन्न हो तथा किसी प्रकार का भ्रम भी इनमें न उत्पन्न हो। यदि पहले ज्ञेय और ज्ञायक में संकर दोष अथवा दोनों