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प्रथम खण्ड / तृतीय पुस्तक
भावार्थ - जिस समय ज्ञान में घट विषय पड़ा है उस समय भी वह घटाकार ज्ञान ज्ञान ही है। घटाकार होने से (घट को विषय करने से ) वह ज्ञान घटरूप अथवा घट का गुण नहीं हो जाता है। घटाकार का होना केवल (मात्र ) ज्ञान का ही स्वरूप है जैसे दर्पण में किसी पदार्थ का प्रतिबिम्ब पड़ने से वह दर्पण पदार्थोंकार हो जाता है। दर्पण का पदार्थाकार होना दर्पण की ही पर्याय है। दर्पण उस प्रतिबिम्बमूलक पदार्थ रूप नहीं हो जाता है तथा जैसे दर्पण पदार्थाकार होने पर भी वह अपने स्वरूप में है वैसा पदार्थाकार न होने पर भी वह अपने स्वरूप में है। ऐसा नहीं है कि पदार्थाकार होते समय पदार्थ के कुछ गुण दर्पण में आ जाते हों अथवा दर्पण के कुछ गुण पदार्थ में चले जाते हों । उसी प्रकार ज्ञान भी जैसा पदार्थाकार होते समय जीव का चैतन्य गुण है। वैसा पदार्थाकार बिना भी जीव का चैतन्य गुण है। दोनों अवस्थाओं में वह जीव का ही एक जैसा गुण है।
अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय की प्रवृत्ति के उदहरण का फल एतेन निरस्तं यन्मतमेतत्सति घटे घटज्ञानम् । असति घटे न ज्ञानं न घटज्ञानं प्रमाणशून्यत्वात् ॥ ५३८ ॥
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अर्थ - इस कथन द्वारा जो यह सिद्धांत है कि घट की उपस्थिति में घट का ज्ञान होता है तथा घट की अनुपस्थिति में न तो ज्ञान होता है तथा न घटज्ञान होता है खण्डित हो गया क्योंकि वह मान्यता प्रमाणशून्य है ।
भावार्थ- बौद्ध सिद्धांत है कि पदार्थ ज्ञान में पदार्थ ही कारण है। बिना पदार्थ के उसका ज्ञान नहीं हो सकता, साथ ही ज्ञानमात्र भी नहीं हो सकता क्योंकि जो भी ज्ञान होगा वह पदार्थ से ही उत्पन्न होगा अर्थात् पदार्थ के रहते ये ही होगा। इस नय का ज्ञान होने पर यह कथन प्रमाण शून्य प्रतिभासित होने लगता है क्योंकि ज्ञान तो जीव का जीवोपजीवी गुण है। वह तो स्वतः सिद्ध है और अपनी योग्यता से जाननशक्ति से स्वयं जानता है। इस नय की दृष्टि स्वतः जानने रूप पर्याय पर भी नहीं है किन्तु स्वतः सिद्ध स्वभाव पर है। केवल अभेद में भेद के कारण इसमें व्यवहारपना आया है ।
अनुपचरितसद्भूत व्यवहारनय के जानने का फल
फलमास्तिक्यनिदानं सद्द्रव्ये वास्तवप्रतीतिः स्यात् ।
भवति क्षणिकादिमते परमोपेक्षा यतो विनायासात् ॥ ५३१ ॥
अर्थ - इस नय का फल आस्तिक्यता का कारण बनता है क्योंकि सत् द्रव्य में वास्तव प्रतीति हो जाती है तथा क्षणिकादिमत् (बौद्धादिमत ) में बिना किसी प्रयास के परम उपेक्षा हो जाती है।
भावार्थ - घटज्ञान अवस्था में भी ज्ञान को जीव का ही गुण समझना अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय है और यही पदार्थ की यथार्थ प्रतीति का बीज है।
उपचारित सद्भूत व्यवहार नय का वर्णन ५४० से ५४५ तक
उपचरितसद्भूत व्यवहार नय का लक्षण
उपचरितः सद्भूतो व्यवहारः स्यान्नयो यथा नाम |
अविरुद्धं हेतुवशात्परतोऽप्युपचर्यते यतः स्वगुणः ॥ ५४० ॥
अर्थ - अविरुद्धतापूर्वक किसी हेतु से उस वस्तु के गुण का उसी में पर की अपेक्षा से भी जहाँ पर उपचरित किया जाता है वहाँ पर उपचरितसद्भूतव्यवहारनय प्रवर्तित होता है।
भावार्थ - यहाँ पर उसी वस्तु का गुण उसी में विवक्षित किया जाता है इतना अंश तो सद्भूत का स्वरूप है। गुणी से गुण का भेद किया गया है, इतना अंश व्यवहार का स्वरूप है तथा वह गुण उस वस्तु में पर से उपचरित किया जाता है इतना उपचारित अंश है। इसलिए ऐसे ज्ञानवाला उपचरित सद्भूत व्यवहार नय कहलाता है अथवा ऐसा उपचरित प्रयोग भी इसी नय का विषय है।