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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
मिली हुई अवस्था में भी) किन्हीं के द्वारा शुद्ध अनुभव किया जाता है उसी प्रकार' द्रव्य कर्म के क्रोधादिक मूर्तिक गुणों के सम्बन्ध से 'आत्मा क्रोधी इत्यादि' असद्भूत व्यवहार नय से कहा जाता है पर वही आत्मा उसी समय उसी राग सहित मिली हुई अवस्था में पर गण के सम्बन्ध को छोड़कर किन्हीं निकट भव्यों के द्वारा शद्ध अनुभव किया जाता है। इसका नाम सम्यग्दर्शन है। इस प्रकार इस नय के द्वारा कोई सम्यग्दृष्टि हो सकता है। दृष्टांत में ग्रंधकार ने परसंयोग नहीं लिखा किन्तु परगुणसंयोग लिखा है। अर्थात् चांदी से उनका भाव नहीं है किन्तु चांदी का गुण जो सफेद
और वह सफेदी जो सोने में झलकने लगती है उसको सोने का वैभाविक परिणमन बनाकर दृष्टांत बनाया है। उसी प्रकार जीव में कर्म संयोग नहीं किन्तु कर्मगुणसंयोगकर्म का गुण जो क्रोधादि भाव उसका जीव में संयोग होने पर उस से रहित जीव को शुद्ध अनुभव करना क्योंकि असद्भूत व्यवहार में ग्रंथकार दूसरे धर्मी को नहीं लेता किन्तु उसके
विभाव को लेता है। दूसरे धमी को लेना तो नयाभास है। यह दृष्टांत और दान्ति में बराबर ध्यान रहे। नोट-व्यवहारनय के मूल भेदों का वर्णन समाप्त हुआ। अब प्रभेदों का अर्थात् भेदों का वर्णन करते हैं
सदभूतव्यवहारोऽनुपचरितोऽस्ति च तथोपचरितश्च ।
अपि चासद्भूतः सोऽनुपवरितोऽस्ति च तथोपचरितश्च ॥ ५३४॥ अर्थ-सद्भुतव्यवहार नय अनुपचारित भी होता है और उपचरित भी होता है तथा वह असद्भुत व्यवहार नय भी अनुपचरित और उपचरित होता है।
अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय का वर्णन ५३५ से ५३९
अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय का लक्षण स्थादादिमा यथावसाला धा शारारित यस्य सतः ।
तत्तत्सामान्यतया निरूप्यते चेद्विशेषनिरपेक्षम् ॥ ५३५ ।। अर्थ-जिस पदार्थ के भीतर जो शक्ति है वह उसकी यदि विशेष निरपेक्ष सामान्य रूप से निरूपण की जाती है तो पहली अनुपचारित सद्भूतव्यवहारमय है।
भावार्थ-द्रव्य की निजशक्ति पर से उपचरित नहीं की जाती किन्तु स्व से उपचरित की जाती है जैसे ज्ञान ज्ञेय का नहीं किन्तु ज्ञानी (आत्मा) का कहना यह अनुपचरित, द्रव्य की वास्तविक शक्ति इसलिये सद्भुत और अभेद में भेद करके प्रवृत्ति करना व्यवहार । इस प्रकार अनुपचरितसद्भुत व्यवहार है।
अनुपधरितसद्भूत व्यवहार नय का उदाहरण ५३६-५३७ इदमत्रोदाहरणं ज्ञानं जीवोपजीवि जीवगः ।
झेयालम्बनकाले न तथा ज्ञेयोपजीवि स्यात् ॥ ५३६।। अर्थ-यह उसका उदाहरण है। ज्ञान-जीव से ही जिसका जीवन है ऐसा जीव का अनुजीवी गुण है। वह ज्ञेय के अवलम्बन काल में भी ( अर्थात पर्याय में ज्ञेय को जानते समय ज्ञेयाकार होने पर भी) ज्ञेयोपजीवी (जेय के आधार से जीने वाला अथवा ज्ञेय का ही अनुजीवी गुण) नहीं हो जाता अर्थात् किसी पदार्थ को विषय करते समय ज्ञान सदा जीव का अनुजीवी गुण रहेगा वह अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय का उदाहरण है।
भावार्थ-यद्यपि ज्ञान, जिस समय जिस विषय को विषय करता है उस समय उसको वही कहते हैं जैसे घट को विषय करने से ज्ञान-घटज्ञान कहलाता है तो भी अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नय की दृष्टि से यह कथन बराबर नहीं है। इसलिये ज्ञान को ज्ञेयोपजीवी न कह कर केवल आत्मोपजीवी ही कहना अर्थात् ज्ञान को घट ज्ञान न कहकर मात्र ज्ञान कहना ये इस नय का विषय है। ये नय ज्ञान को हर समय गुण रूप से-सामान्य रूप से देखती है। विशेष रूप से नहीं। विशेष रूप से उपचरित सद्भूत देखता है। केवल ज्ञान अवस्था में ज्ञान को क्षायिक अवस्था रूप-लोकालोक रूप देखना उपचरितसद्भूत है। अनुपचरित दृष्टि से तो उस समय भी ज्ञान गुण विशेष निरपेक्ष ज्ञान गुण रूप ही है।
घदसद्भावे हि यथा घरनिरपेक्ष चिदेव जीवगुणः ।
अरित घटाभावेऽपि च घटनिरपेक्ष चिदेव जीवगुणः ॥ ५३७॥ अर्थ-जिस प्रकार घट के सद्भाव में (घट को विषय करते समय ) घट की अपेक्षा न करके केवल चिद ज्ञान) ही जीव का गुण है उसी प्रकार घट के अभाव में भी घट निरपेक्ष चित् (ज्ञान) ही जीव का गुण है।