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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
-- "..... ..भावार्थ-सद्भुतव्यवहारनय वस्तु के विशेष गुणों का विवेचन करता है। इस नय के ज्ञान द्वारा वस्तु अपने विशेष गणों द्वारा दूसरी वस्तुओं से भिन्न ही प्रतीत होने लगती है। जैसे कि जीव का ज्ञान गुण इस नय द्वारा विवक्षित होता है। वह जीव को दूसरे पद्गलादि द्रव्यों से भिन्न सिद्ध करता है परन्त यह नहीं कि जीव को ही अपने गणों से भिन्न सिद्ध करता हो अथवा जीव और ज्ञान में भेद करता हो ( देखिये पूर्व श्लोक ५१५)।
अरतमितसर्वसङ्करदोष क्षतसर्वशून्यदोषं वा ।
अणुरिव वस्तुसमस्तं ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणमिदम् ॥ ५२८ ॥ अर्थ-सद्भूतव्यवहारनय से वस्तु का यथार्थ परिज्ञान होने पर वह सब प्रकार के संकर दोषों से रहित-सब से जुदी, सब प्रकार के शून्यता-अभाव आदि दोषों से रहित , समस्त ही वस्तु बिना दूसरे की अपेक्षा किए हुये एक परमाणु के समान स्व से अखण्ड तथा पर से भिन्न ज्ञात होने लगती है। ऐसी अवस्था में वह उसका शरण वही दीखती है।
भावार्थ-इस नय द्वारा जब वस्तु उसके विशेष गुणों से दूसरों से भिन्न सिद्ध हो जाती है, फिर उसमें संकर दोष नहीं आ सकता है तथा गुणों का परिज्ञान होने पर उसमें शून्यता अर्थात् अभाव आदि दोष भी नहीं आ सकते हैं क्योंकि उसके गुणों की सत्ता और उनकी नित्यता का परिज्ञान उक्त दोनों दोषों का विरोधी है तथा जब वस्तु के सामान्य भी गुण उसमें ही दीखते हैं उससे बाहर नहीं दीखते तब वस्तु परमाणु के समान उसके गुणों से अखण्ड, अभिन्न और पर से सर्वथा भिन्न प्रतीत होती है। इतने बोध होने पर ही वस्तु अनन्यशरण (अपनी शरण आप-कोई वस्तु कोई वस्तु की शरण नहीं) प्रतीत होती है।
असद्भुत व्यवहार नय का वर्णन (५२९ से ५३३ तक)
असद्भुतब्धयहारनय का लक्षण अपि चासद्भूतादिव्यवहारान्तो जयश्च भवति यथा ।
अन्यद्रव्यस्य गुणाः संयोज्यन्ते बलात्तदन्यत्र ।। ५२९॥ अर्थ-असद्भुत है आदि में जिसके और व्यवहार है अन्त में जिसके ऐसा ये असद्भुतव्यवहार नय है। इस नय द्वारा अन्य द्रव्य के गुण बलपूर्वक (कारणवश-विभाव परिणमन के कारण) उससे अन्य द्रव्य के कहे जाते हैं जैसे पुदगल का क्रोध, जीव में क्रोधरूप विभाव परिणमन होने के कारण, जीव का कहना।
भावार्थ-इस नय द्वारा अन्य द्रव्य के गुण अन्य द्रव्य के कहे जाते हैं क्योंकि वे गुण वास्तविक रूप से उसमें नहीं है इसलिये असद्भुत किन्तु वे भाव उसमें प्रवर्तते हैं पर्याय में पाये जाते हैं इसलिये व्यवहार । जैसे राग वास्तव में पुदगल द्रव्य का गुण है उसे आत्मा का गुण कहना ये असद्भुतव्यवहार नय है। इस नय से राग को आत्मा का कहा जाता है। राग आत्मा का त्रिकाली गण नहीं है इसलिये तो असद्भुत किन्त वैभाविक शक्ति के कारण आत्मा की पर्याय में राग पाय जाता है इसलिये व्यवहार । इस प्रकार असद्भूत व्यवहारनय है।
असद्भूतव्यबहारन्य का उदाहरण स यथा वर्णादिमलो मूर्तद्रव्यस्य कर्म किल मूर्तम् ।
तत्संयोगात्वादिह मूर्ताः क्रोधादयोऽपि जीवभवाः ।। ५३०॥ अर्थ-वह इस प्रकार:- वर्णादिमान मूर्त द्रव्य का बना हुआ कर्म निश्चय से एक मूर्त पदार्थ है। उसका संयोग (निमित्त मात्र उदय) होने से ये मूर्तिक क्रोधादिक जीव में उत्पन्न होते हैं। फिर उन क्रोधादिकों को जीव के गुण कहना असद्भूतव्यवहार है।
भावार्थ-मोहनीय कार्मण वर्गणा में जो क्रोधादि शक्ति है वह शक्ति वास्तव में उस पुदगल कर्म का गुण है और वह शक्ति निश्चय से मूर्त है। उसके उदय रूप निमित्तमात्र की सन्निधि होने पर जीव अपनी वैभाविक शक्ति के कारण भाव क्रोधादि रूप पर्याय में स्वयं परिणमन करता है। बस इस कारण के- कारण जीव में उत्पन्न होने वाले उन भाव क्रोधादिकों को जीव के कहना ये असद्भुत व्यवहार नय है। इस प्रकार एक द्रव्य के गुण दूसरे द्रव्य में संयोजित किये जाते हैं - आरोपित किये जाते हैं-कहे जाते हैं। क्या इसी नय से जीव को वर्षमान (गोरा-काला) भी कह सकते हैं ? नहीं। क्रोधी जीव को कहने का तो उसका वैभाविक परिणमन कारण है पर वर्ण तो दूसरे धर्मी का परिणमन (परिणाम)है। उसको जीव का नहीं कह सकते क्योंकि उसका कोई कारण नहीं है। केवल संयोग या निमि