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________________ प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक बोध कराने वाली होने के कारण स्थापन करने योग्य है पर"अनुसरण करने योग्य नहीं है क्योंकि यह राग-द्वेष संसार की उत्पादक है। केवल काम निकालने की चीज है अटकने की चीज नहीं है। श्री समयसारजी गाथा ८ की टीका में कहा है - "इस प्रकार जगत तो म्लेच्छ के स्थान पर होने से और व्यवहार नय भी म्लेच्छ भाषा के स्थान पर होने से परमार्थ का प्रतिपादक (कहने वाला) है इसलिये व्यवहार नय स्थापित करने योग्य है, किन्तु ब्राह्मण को म्लेच्छ नहीं हो जाना चाहिये - इस वचन से वह ( व्यवहार नय) अनुसरण करने योग्य नहीं है।" अर्थात् स्वयं म्लेच्छ बनने योग्य नहीं है, इस बात को बराबर समझ लेना चाहिये अन्यथा सब शास्त्राभ्यास निरर्थक है। साध्य की सिद्धि न होगी। इसी बात को श्री पुरुषार्थमिद्धयगायन में इन पाब्दों में कहा है कि "अज्ञानी को ज्ञान कराने के लिये मुनीश्वर अभूतार्थ का ( व्यवहार नय को-भेद को ) उपदेश करते हैं। जो केवल व्यवहार को ही जानता है। उसके लिये उपदेश ही नहीं है क्योंकि आचार्य महाराज तो अभेद को पकड़ाने के लिये भेद का उपदेश दे रहे थे भेद में अटकने के लिये नहीं। इस भूल से सावधान रहना चाहिये। नोट-मूलभूत व्यवहार नय का वर्णन समाप्त हुआ। अब उसके भेदों का वर्णन करते हैं। सदभूत व्यवहार य का वर्णन (५२५ से ५२८ तक) सद्भुत व्यवहार नय का लक्षण व्यवहारजयो द्वेधा सद्भूतरत्तथ भवेदसद्भूतः । सद्भुतस्तद्गुण इति व्यवहारस्तत्प्रवृत्तिमात्रत्वात् ॥ ५२५ ।। अर्थ-व्यवहार नय दो प्रकार है (१) सद्भूत और (२) असदभूत । जिस वस्तु में जो गुण है उसकी सद्भूत संज्ञा है और उन गुणों की भेद रूप प्रवृत्तिमात्र का नाम व्यवहार है अर्थात् विवक्षित किसी द्रव्य के गुणों को उसी द्रव्य में भेद रूप से प्रवृत्ति कराने वाले नय का नाम सद्भूतव्यवहार नय है। ____भावार्थ-किसी द्रव्य के गुण उसी द्रव्य में विवक्षित करने का नाम ही सद्भूतव्यवहार नय है। यह नय उसी वस्तु के गुणों का विवेचन करता है इसलिये यथार्थ है। इस नय में अयथार्थपना केवल इतना है कि यह अखण्ड वस्तु में करता है। प्रवृत्ति के पीछे 'मात्र' शब्द इसलिये है कि - "इस नय के कथन में गुण के भेद की प्रवृत्ति है पर उसका प्रयोजन भेद समझाने का नहीं है परन्तु गण-गणी के अभेदरूप समझाने का है।" सद्भूत व्यवहारनय की प्रवृत्ति में कारण अन निटानं च यथा सदसाधारणगुणो विवक्ष्यः स्यात् । अविवक्षितोऽथवापि च सत्साधारणगुणो न चान्यतरात् ॥ २६॥ अर्थ-इस नय की प्रवृत्ति में कारण यह है कि सत् का असाधारण गुण विवक्षित होता है और सत् का साधारण गुण अविवक्षित होता है। दूसरे प्रकार नहीं अर्थात् इस नय की प्रवृत्ति में साधारण गुण विवक्षित हो और असाधारण अविवक्षित हो ऐसा कभी नहीं होता । (श्लोक अस्ति नास्ति से लिखा है)। ___ भावार्थ-सद्भूत व्यवहार नय का कारण उस द्रव्य के असाधारण गुण जानने का है क्योंकि असाधारण गुणों द्वारा वह द्रव्य दूसरे द्रव्यों से भिन्न पहचाना जा सकता है। वह द्रव्य दूसरे द्रव्यों से जुदा है यह सिद्ध होते दूसरे द्रव्यों की उसमें 'नास्ति' है ऐसी निषेध बुद्धि उत्पन्न होती है । साधारण गुण से उस द्रव्य की सिद्धि तो हो जाय पर उस द्रव्य को दूसरे द्रव्यों से भिन्न नहीं जाना जा सकता। इसलिये साधारण गुण की विवक्षा होवे तो उस समय उसको सामान्यपने व्यवहार नय तो कह सकते हैं पर सद्भूतव्यवहार नय नहीं कह सकते। सद्भुत व्यवहार नय के जानने का फल ५२७,५२८ अस्यातगमें फलमिति तदितरवस्तुनि निषेधबुद्धिः स्यात्। इसरविभिन्नो नय इति भेदाभिव्यजको न नयः ॥ ५२७॥ अर्थ-इस नय का फल है कि इससे विवक्षित वस्तु के सिवाय अन्य वस्तु में यह वह नहीं है' इस प्रकार निषेध बुद्धि हो जाती है क्योंकि विवक्षित एक वस्तु को दूसरी वस्तुओं से भिन्न प्रगट करने वाला यह नय है किन्तु एक ही पदार्थ में भेद को प्रगट करने वाला यह नय नहीं है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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