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व्यवहार नय की प्रवृत्ति में कारण
साधारणगुण इति वा यदि वाऽसाधारणः सतस्यस्य ।
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भवति विवदयो हि यदा व्यवहारनयस्तदा श्रेयान् ॥ ५२३ ॥
अर्थ - जब उस सत् का साधारण गुण या असाधारण गुण कोई भी विवक्षित होता है तब व्यवहार नय प्रवृत्त होता है।
भावार्थ - अखण्ड द्रव्य अनन्त गुणों का पिण्ड है। द्रव्य का वाचक जगत् में कोई शब्द ही नहीं है। जितने शब्द हैं वे उसके एक-एक गुण के वाचक हैं। अतः अखण्ड वस्तु में किसी एक गुण का भेद करके उस भेद द्वारा यह नय बस्तु को पकड़ा देता है। जैसे जीव को चाहे सामान्य गुण 'द्रव्य ' ( द्रव्यत्व गुण का वाचक ) कह कर पकड़ाये या सत् ( अस्तित्व गुण का वाचक ) कह कर पकड़ाये या ज्ञान या दर्शन आदि कोई विशेष गुण कह कर पकड़ाये । चाहे जिस गुण भेद से वस्तु पकड़ाये जैसे "परिणमन करे सो जीव द्रव्यत्व गुण से, जाने सो जीव ज्ञान गुण से " । वस्तु पकड़ाने के लिये इस नय द्वारा सामान्य या विशेष कोई गुण भी विवक्षित किया जा सकता है। उससे ही वस्तु पकड़ ली जाती है। वस्तु का पकड़ना ही इस नय की सार्थकता है।
अगली भूमिका - यहाँ पर शंका की जा सकती है कि जब व्यवहार नय वस्तु में भेद सिद्ध करता है तथा उसके यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादक नहीं है तो फिर उसका विवेचन ही क्यों किया जाता है अर्थात् जब उससे किसी उपयोगी फल की सिद्धि ही नहीं होती तो उसका मानना ही निष्फल है ? इस शंका के उत्तर में व्यवहार नय का फल नीचे के श्लोक में कहा जाता है:
व्यवहार नय के जानने का फल
फलमारितक्यमतिः
स्यादनन्तधर्मै कधर्मिणस्तस्य ।
गुणसद्भावे नियमाद् द्रव्यारितत्वस्य सुप्रतीतत्वात् ॥ ५२४ ॥
अर्थ - इस व्यवहार नय का फल यह है कि उस अनन्तधर्मात्मक एक धर्मी में आस्तिक्य बुद्धि हो जाती है क्योंकि गुणों के सद्भाव में नियम से द्रव्य का अस्तित्व सिद्ध होता है और द्रव्य का अस्तित्व सिद्ध होने पर फिर उसका सद्भाव स्वयं सिद्ध स्वतः अनुभव (प्रतीति) में आने लगता है।
भावार्थ-व्यवहार नय के मानने का फल यह है कि वस्तु में अनन्त धर्म होने पर भी वह अखण्ड वस्तु है ऐसी प्रतीति हो जाती है। अर्थात् गुण गुणी अभेद होने से गुणों को जानने से गुणी की प्रतीति जीव को आवे तो इस व्यवहार नय का यथार्थ फल आया कहलाय । व्यवहार (भेद) के आश्रय का फल विकल्प- राग द्वेष संसार है इसलिये भेद का आश्रय नहीं करना चाहिये अर्थात् इस नय द्वारा कहे हुये गुणों के भेद में नहीं रुकना चाहिये। अभेद द्रव्य की प्रतीति करनी यही इस नय के ज्ञान का फल है। यदि यह फल न आये, तो इस नय का ज्ञान यथार्थ नहीं कहा जाता।
५२१ से ५२४ तक का सार
व्यवहार नय के बिना पदार्थ विज्ञान नहीं होता । दृष्टान्त के लिये जीव द्रव्य को ही ले लीजिये । व्यवहार नय से जीव का कभी ज्ञान गुण विवक्षित किया जाता है, कभी दर्शन गुण, कभी चारित्र, कभी सुख, कभी वीर्य, कभी सम्यकत्व, कभी अस्तित्व, कभी वस्तुत्व, कभी द्रव्यत्व इत्यादि सब गुणों को क्रमशः विवक्षित करने से यह बात ध्यान में आ जाती है कि जीव द्रव्य अनन्त गुणों का पुंज है। साथ ही इस बात का भी परिज्ञान (व्यवहार नय से ) हो जाता है कि ज्ञान, दर्शन, सुख, चरित्र, सम्यकत्व ये जीव के विशेष गुण हैं क्योंकि ये गुण जीव के सिवाय अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाये जाते हैं और अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व आदि सामान्य गुण हैं क्योंकि ये गुण जीव द्रव्य के सिवाय अन्य सभी द्रव्यों में भी पाये जाते हैं तथा रूप, रस, गंध, स्पर्शं ये पुद्गल के सिवाय अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाये जाते हैं इसलिये वे पुद्गल के विशेष गुण हैं। इस प्रकार वस्तु में अनन्त गुणों के परिज्ञान के साथ ही उसके सामान्य विशेष गुणों का परिज्ञान भी व्यवहार नय से होता है। गुण-गुणी और सामान्य विशेष गुणों का परिज्ञान होने पर ही पदार्थ में अस्तित्व भाव होता है। इसलिये बिना व्यवहार नय के माने काम नहीं चल सकता क्योंकि पदार्थ का स्वरूप बिना समझाये आ नहीं सकता और जो कुछ समझाया जायेगा वह अंश रूप से समझाया जायेगा इसी को पदार्थ में भेद बुद्धि कहते हैं । अभिन्न अखण्ड पदार्थ में भेद बुद्धि को उपचरित कहा गया है। इस प्रकार यह व्यवहार नय पदार्थ का
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