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प्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भाव नय का लक्षण यदि वा ज्ञानविकल्पो नयो विकल्पोऽस्ति सोऽप्यपरमार्थः ।
न यतो ज्ञान गुण इति शुद्ध ज्ञेयं च किल तद्योगात् ॥ ५०६ ॥ अर्थ-अथवा ज्ञान में विकल्प भाव नय है। वह विकल्प भी ( राग रूप होने से ) अपरमार्थ है ( अर्थात् नय मूल वस्तु नहीं है ) क्योंकि नय न तो शुद्ध ज्ञान गुण है और न ज्ञेय है किन्तु उस ज्ञेय के निमित्त से ज्ञान में जो विकल्प है वह नय है अर्थात ज्ञेय में अटक कर (सककर) होने वाले श्रत ज्ञान के विकल्प को नय
भावार्थ-जैसे किसी घट से अनभिज्ञ पुरुष को घट का ज्ञान कराना है तो घट के एक-एक अंग के स्वरूप का वर्णन जिन शब्दों में किया जायेगा वे शब्द और भाव-नय हैं। न तो ज्ञान नय है न घट नय है। केवल घट को समझने
झाने का साधन विकल्प (राग) नय है। अर्थात् सेय के आश्रय से होने वाले राग सहित श्रृत ज्ञान के एक अंश को नय कहते हैं।
ज्ञानविकल्यो नय इति तनेयं प्रक्रियापि संयोज्या ।
ज्ञानं ज्ञानं न नयो, नयोऽपिन ज्ञानमिह विकल्पत्वाल ॥ ५०७।। अर्थ-ज्ञान विकल्प नय है। वहाँ भी यह प्रक्रिया लगा लेनी चाहिये कि ज्ञान ज्ञान है नय नहीं। नय भी ज्ञान नहीं है क्योंकि वह विकल्प रूप है (ज्ञान आत्मा का त्रिकाली स्वभाव है और विकल्प एक समय का क्षणिक आगन्तुक भाव है। दोनों भिन्न-भिन्न हैं)।
उन्मति नयपक्षो भवति विकल्यो तितक्षितो हि यदा ।
न विवक्षितो विकल्पः स्वयं लिमजति तदा हि जयपक्ष: || ५०८॥ अर्ध-जब विकल्प विवक्षित होता है तन्त्र नय पक्ष प्रगट होता है और जब विकल्प विवक्षित नहीं होता तब नय पक्ष स्वयं डूब जाता है।
भावार्थ-जब समझने-समझाने का काम होता है तो नय पक्ष खड़ा हो जाता है और ज्ञान होने पर जब वस्तु का अनुभव किया जाता है तो नय पक्ष नष्ट हो जाता है।
संदृष्टिः स्पष्टेयं स्यादुपचाराद्यय घटज्ञानम् ।
झानं ज्ञानं न घटो, घटोऽपि न ज्ञानमस्ति स इति घटः ।।५०९।। अर्थ-दृष्टान्त यह स्पष्ट है। जैसे घट को विषय करने वाले ज्ञान को उपचार से घट ज्ञान कहा जाता है (पर ऐसा कहने से कहीं ज्ञान, घट रूप या घट, ज्ञान रूप नहीं हो गया) ज्ञान ज्ञान रूप है घट रूप नहीं है। घट भी ज्ञान नहीं है वह तो घड़ा ही है।
भावार्थ-ज्ञान का स्वभाव जानना है। हरएक वस्तु उसका ज्ञेय पड़ती है फिर घट को विषय करने वाले ज्ञान को घट ज्ञान क्यों कह दिया जाता है ? उत्तर-उपचार से । उपचार का कारण भी विकल्प है। यद्यपि घट से ज्ञान सर्वथा भिन्न है तथापि ज्ञान में घट-यह विकल्प अवश्य पड़ा है। इसलिये उस ज्ञान को घट ज्ञान कह दिया जाता है।
इदमच तात्पर्य हेय: सर्वो नयो विकल्पात्मा । बलवानिव
र: प्रवर्तते किल तथापि बलातु ॥ ५१०१ अर्थ-यहाँ यही तात्पर्य है कि विकल्पात्मक सब नय त्याज्य ही हैं। तो भी वह बलपूर्वक बलवान की तरह प्रवर्त होता है और उसको नष्ट करना कठिन है।
भावार्थ-समझने-समझाने का और कोई साधन नहीं है अतः यह नय रूप विकल्प हेय होने पर भी लाचारी में प्रयोग करना ही पड़ता है। इसी को बलपूर्वक प्रवृत्ति कहते हैं। दुर्वार इसलिये है कि जीव सहसा नय विकल्पों का अभाव नहीं कर सकता। केवल आत्मज्ञानी आत्मानुभव से ही नयातीत दशा को प्राप्त करते हैं।
(आगे देखिये ६४५ से ६५३ तक)