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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक
अध्यात्मचन्द्रिका टीका सहित नय प्रमाण निक्षेप निरूपण
मात्रा नय प्रमाण प्रयोग पद्धति (५०३ से ७६८ तक)
प्रतिज्ञा उक्त सदिति यथा स्याटेकमजेकं सुसिद्धदृष्टान्तात् ।
अधुना तताइमात्रं प्रमाणनयलक्षणं वक्ष्ये ॥ ५०३ ॥ अर्थ-सत् जिस प्रकार एक और जिस प्रकार अनेक है यह (४३४ से ५०२ तक) सुप्रसिद्ध दृष्टान्तों द्वारा कहा गया। अब उस सत् के उच्चारणमात्र ( विकल्पात्मक) नय प्रमाण लक्षण को कहूँगा। __ भावार्थ-केवल गुरु शिष्य की प्रवृत्ति द्वारा समझाने के लिये अथवा स्वयं वस्तु को विचार करके समझने के लिये नय प्रमाण साधन है । अतः शब्दात्मक तथा विकल्पात्मक हैं। अनुभव में नय प्रमाण नहीं होते । अनुभव निर्विकल्प होता है।
पहला अवान्तर अधिकार नय का सामान्य निरूपण ५०४ से ५१५ तक
नय का लक्षण इत्युक्त्तलक्षणेऽस्मिन् विरुद्धधर्मद्वयात्मके तत्त्वे ।
तत्राप्यन्यतरस्य स्यादिह धर्मस्य वाचकश्च जयः ॥ 40४ || अर्थ-२६१ से ५०२ तक कहा गया है लक्षण जिसका ऐसे इस विरुद्ध दो धर्म स्वरूप ( अस्ति-नास्ति, तत्-अतत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक, इस प्रकार परस्पर विरुद्ध दो धर्म स्वरूप) तत्त्व में-उन विरुद्ध धर्मों में से किसी एक धर्म का वाचक नय है जैसे सत् एक है या यह कहना कि सत् अनेक है।
भावार्थ- वस्तु सामान्यविशेषात्मक है और उस सारी को कहने वाला प्रमाण है। उसमें केवल सामान्य धर्म को कहने वाला अथवा केवल विशेष धर्म को कहने वाला नय है अर्थात विवक्षित अंश का प्रतिपादक नय है।
नय के औपचारिक भेद* दव्यनयो भावनयः स्यादिति भेदाद द्विधा च सोऽपि यथा ।
पोटगलिकः किल शब्दो दव्य भावश्च चिदिति जीवाणः ॥40५॥ अर्थ-द्रव्य नय और भाव नय इस प्रकार वह नय भी भेद से दो प्रकार है। पौदगलिक शब्द द्रव्य नय है। चेतन रूप जीव का गुण (विकल्पात्मक ज्ञान ) भाव नय है।
भावार्थ-जिस प्रकार श्रुत ज्ञान के स्वार्थ और पराधं दो भेद हैं उसी प्रकार नथ, श्रुत ज्ञान का अंश होने से उसके शब्द और भाव रूप दो भेद किये हैं। पदार्थ के एक अंश का प्रतिपादक वाक्य द्रव्य नय कहलाता है और पदार्थ के एक अंश को विषय करने वाला विकल्पात्मक ज्ञान भाव नय कहलाता है। उनमें भी इतनी विशेषता है कि पौद्गलिक शब्दों को उपचार से नय कहा है और भावात्मक वास्तविक नय हैं क्योंकि नय आत्मा की पर्याय में होते हैं। वे विकल्पात्मक श्रुत ज्ञान के अंश हैं।
* नय के वास्तविक भेद आगे ५१७ में कहेंगे।