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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
प्रश्न १२५ - सर्वथानिरपेक्षपने का निषेध कहाँ-कहाँ किया है ? उत्तर - (१) सामान्य और विशेष दोनों के निरपेक्षपने का निषेध तो १८ से १९ तक तथा २८९ से ३०८ तक
किया है। (२)तत्-अतत् के सर्वथा निरपेक्ष का निधेष ३३२ में किया है।(३) सर्वथा नित्य का निषेध ४२३ से ४२८ तक तथा सर्वथा अनित्य का निषेध ४२९ से ४३२ तक किया है।(४) सर्वथा एक का
निषेध ५०१ में और सर्वथा अनेक का निषेध ५०२ में किया है। प्रश्न १२६ - परस्पर सापेक्षता का समर्थन कहाँ-कहाँ किया है ? उत्तर- (१) सामान्य विशेष की सापेक्षता नं. १५, १७,२०, २१, २२ तथा २८१ से ३०८ तक है (२) तत्
अतत् की सापेक्षता ३३२ से ३३४ में बताई है। (३) नित्य-अनित्य की सापेक्षता ४३३ में कही है।
(४) एक अनेक की सापेक्षता ५०० में कही है। प्रश्न १२७ - निरपेक्ष के नामान्तर बताओ? उत्तर - निरपेक्ष, निरंकुश, स्वतन्त्र, सर्वथा, भिन्न-भिन्न प्रदेश। प्रश्न १२८ - सापेक्ष के नामान्तर बताओ? उत्तर- सापेक्ष, परस्पर मिथ: प्रेम,कथंचित, स्यात् किसी अपेक्षा से, दोनों के अभिन्न प्रदेश अविरुद्ध रूप से,
मैत्रीभाव, सप्रतिपक्ष। प्रश्न १२९ - मुख्य के नामान्तर बताओ? उत्तर - विवक्षित, उन्मग्न, अर्पित, मुख्य, अनुलोम, उन्मजत, अस्ति, जिस दृष्टि से देखना हो, अपेक्षा, स्व। प्रश्न १३० - गौण के नामान्तर बताओ? उत्तर - अविवक्षित, अवमग्न, अनर्पित, गौण, प्रतिलोम, निमजत, नास्ति, जिस दृष्टि से न देखना हो, उपेक्षा पर।
शेष विधि विचार (६) प्रश्न १३१ - शेष विधि पूर्ववत् जान लेना' इसमें क्या रहस्य है ? उत्तर- अस्ति-नास्ति, तत्-अतत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक चारों युगल अपने-अपने रूप से अस्ति और नास्ति
(जिसकी मुख्यता हो वह अस्ति, दूसरी नास्ति) रूप तो है ही ( एक-एक नय दृष्टि )पर वे उभय ( प्रमाण दृष्टि ) और अनुभय (शुद्ध अखण्ड द्रव्यार्थिक दृष्टि )रूप भी हैं यह बात भी दृष्टि में अवश्य रहे और
इसका विस्मरण न हो जाय, यही इसका रहस्य है। प्रश्न १३२ - 'शेष विधि पूर्ववत् जान लेना' इसका कथन कहाँ-कहाँ है ? उत्तर - अस्ति-नास्ति का २८७, २८८ में, तत्-अतत् का ३३५ में, नित्य-अनित्य का ४१४ से ४१७ में, एक
अनेक का ४९९ में किया है।(इनका परस्पर अभ्यास करने से अनेकान्त की सब विधि लगाने का परिज्ञान
हो जाता है)। नोट - चारों युगलों में अस्ति पक्ष के प्रश्नोत्तर हमने लिख दिये हैं। नास्ति पक्ष के अर्थात् लक्षणभासों और दृष्टान्ताभासों के प्रश्नोत्तर जान-बूझकर छोड़ दिये हैं।
हरिगीत योग्यता से शब्द की टीका बनी ये खूब है । मोह से मत मानना विद्वान् सरना ने रची ॥